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25.4.08

कविता के आज बन गये वो दादा फल्के

कल तक थे नौकरी में जो लकड़ी की टाल के
कविता के आज बन गये वो दादा फल्के
मरने के बाद यार ने ऐसा किया सलूक
जूते पहन के फिरता है वो मेरी खाल के
मीना बजार लाएगा वो अब खरीदकर
निकला है घर से जेब में एक सिक्का डाल के
अच्छी भली किताब का अब तो अकादमी
करती है खूब फैसला सिक्का उछाल के
दिल में हजार वाट का जलने लगा है बल्ब
उसने पिलां दीं बिजलियां शीशे में ढाल के।
पं. सुरेश नीरव
(पिछली गजल के संदर्भ में मुझे डा. रूपेश श्रीवास्तव, डा. सुभाष भदौरिया,रजनीशके.झा,.अंकितमाथुर,भागीरथजी, और अनिल भारद्वाज की बहुमूल्य प्रतिक्रियाएं मिलीं,आभारी हूं। आपकी राय यह बताती है कि ब्लाग की दुनिया में साहित्य के गंभीर सरोकारों को भी बाकायदा नागरिकता मिल सकती है। मेरे प्रणाम्..।)।। जय भड़ास।। जय यशवंत ।।

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

जय भड़ास
जय यशवंत
जय पंडित सुरेश नीरव
जय क ख ग घ
जय च छ ज झ
..........
..........
जय क्ष त्र ज्ञ
जय A B C....Z
जय किस्सा-कहानी,जय गीत-ग़ज़ल
जय फ़िल्मी गाना, जय पैरोडी
पर हर हाल में जय जय भड़ास

अबरार अहमद said...

बडे भईया प्रणाम स्वीकार करें। बहुत खूब। इसी तरह मार्गदर्शन करते रहिए।

Anonymous said...

वाह वाह पंडित जी,
इसी तरह पिलाते रहें, ढाल ढाल के।
जय जय भडास