गज़ल
बड़े हम जैसे होते हैं तो रिश्ता हर अखरता है ।
यहां बनकर भी अपना क्यूँ भला कोई बिछड़ता है ।
सिमट कर आ गये हैं सारे तारे मेरी झोली में,
कहा मुश्किल हुआ संग चांद अब वह तो अकड़ता है ।
छुपा कान्हा यहीं मै देखती यमुना किनारे पर,
कहीं चुपके से आकर हाथ मेरा अब पकड़ता है ।
घटा छायी है सावन की पिया तुम अब तो आ जाओ,
हुआ मुश्किल है रहना अब बदन सारा जकड़ता है ।
जिसे सौंपा थे मैने हुश्न अपना मान कर सब कुछ,
वही दिन रात देखो हाय अब मुझसे झगड़ता है ।
कवि कुलवंत सिंह
http://kavikulwant.blogspot.com/
2.4.08
Gazal - बडे हम जैसे होते हैं..
Labels: बडे हम जैसे
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1 comment:
हाय दइया,कित्ती रोमांटिक सोमांटिक गज़ल है बदन के हर पुर्जे में पता नहीं क्या क्या होने लगा....
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