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25.6.08

गुमनामी का ग़म

कुछ दर्द लफ्ज़ बन कर दिल से निकल जाते हैं,
कुछ शूल बनकर इस दिल में ही रह जाते हैं,
इन्ही कहे-अनकहे लफ्जों से लिखी हुई
एक दर्द-ऐ-दिल की दास्तान हूँ मैं

कुछ आंखों से अश्क बन कर बरस पड़ते हैं,
कुछ आंखों में अंगार बन कर रह जाते हैं,
इन्ही ख़ामोश, गहरी आंखों में बसे,
मूक अश्कों की बेबस जुबां हूँ मैं।

कभी गिरी तो ज़मीन पर से न उठाया किसी ने
मेरी धूल पोंछकर न सीने से लगाया कभी,
ख़ुद गिरना-संभालना बहुत हो चुका,
अब इस तन्हाई-बेबसी से परेशान हूँ मैं।

आज आया क्या यहाँ पर हे मसीहा कोई???
झुककर मुझे उसने उठाया है अभी,
पोंछ कर मेरी धूल सीने से लगाया है मुझको,
ये क्या हो रहा है? कैसे भला ...
सोचकर बहुत हैरान हूँ मैं


फिर रख कर मुझे सामने बड़े प्रेम से
वो मुझे गौर से पढ़ने लगा,
हर लफ्ज़ पे उसकी निगाह जो गयी,
पढ़ कर उसकी आँखें डबडबा सी गयीं,
जी उठी दास्ताँ, मिल गई रोशनी,
यूँ लगा, जैसे अश्कों को जुबां मिल गयी।

पर वो भी इंसान था, कोई मसीहा नहीं,
पढ़ लिया मगर, समझा न एक लफ्ज़ भी सही,
रख दिया मुझे फिर वहीँ ज़मीन पर,
और होटों पे उसके हसीं छा गयी
ऐसे ही नासमझों की झूठी मुस्कान हूँ मैं।


मैं अनजान हूँ, मैं परेशान हूँ
जान कर भी न कोई पहचाने मुझे
इस बात से हैरान हूँ मैं।
मैं हूँ बेबस निगाहों से बहता लहू,

जुबां है मगर फिर भी बेजुबान हूँ मैं।

कहे-अनकहे लफ्जों से लिखी हुई
एक दर्द-ए-दिल की दास्तान हूँ मैं।
ओ जानेवाले, मुड़ कर तो देख
सिर्फ़ दास्ताँ नही, एक इंसान हूँ मैं।।


-ऋतु गुप्ता

4 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

. .. एक दर्द-ऐ-दिल की दास्तान हूँ मैं l
. .. सिर्फ़ दास्ताँ नही, एक इंसान हूँ मैं l
वाह ! वाह !! अति सुंदर्....
शुभकामनाएं !

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

सुन्दर ही नहीं अपितु गहरी भी है आपकी रचना....

यशवंत सिंह yashwant singh said...

अभी सुधार की गुंजाइश है....बेहद सपाट तरीके से भावनाओं को प्रदर्शित किया गया है। बिंब और प्रस्तुति का ज्यादा इस्तेमाल किया जा सकता था जिससे अर्थ व भाव स्थूल की बजाय सघन और बहुआयामी बन सकते थे। पर कोशिश करते करते यह चीज हासिल होगी इसलिए जो है उसे अच्छा कहना चाहिए।

RAJ GUPTA said...

VERY NICE POETRY, PADHKE KUCH YADE TAAJA HO GAYI.......SHUKRIYA...