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24.6.08

अनुजा का ब्लागः जिस स्त्री-विमर्श शब्द को आदि-अंत माना गया है, मैं उसे नहीं मानती

मत-विमत नामक ब्लाग अनुजा का है। इस ब्लाग को भड़ास के कोने में जोड़ने के लिए अनुजा ने मेल भेजा था। इन दिनों जो व्यस्तताएं हैं उसमें दूसरे ब्लागों पर क्या चल रहा है, क्या लिखा जा रहा है....इसे देखने जानने की फुर्सत नहीं मिलती लेकिन उन ब्लागों को एक नजर जरूर देखता हूं जिन्हें भड़ास से जोड़ने के लिए अनुरोध किया जाता है। इसी क्रम में अनुजा के ब्लाग पर पहुंचा तो वहां ज्यादा पोस्टें तो नहीं दिखीं पर जो भी थीं वो गज़ब की ओरीजनल अंदाज में लिखी गईं थीं। किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह से मुक्त होकर, वही कुछ लिखा है अनुजा ने जिसे उन्होंने सच माना है, जिसे उन्होंने समझा-बूझा और गुना है। आप भी मत-विमत पर जाकर पढ़िए। एक पोस्ट चोरी करके यहां प्रकाशित कर रहा हूं। सिर्फ इसी पोस्ट को पढ़ लें तो आपको काफी कुछ जानने-समझने को मिल जाएगा।

-यशवंत

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खोखला है यह स्त्री विमर्श
--अनुजा--
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अधिकांश लोग यह कहते हैं कि 'मैं स्त्री-विमर्श को समझ नहीं पाई हूं। हमेशा स्त्री-विमर्श को देह से जोड़कर उसे अश्लील बना देती हूं।'

एक महिला-ब्लॉगर ने मुझको सुझाया कि 'मैं स्त्री की सीमाओं में रहकर ही अपनी बात को कहा-लिखा करूं। यूं खुलकर स्त्री की देह पर बात करना या लिखना हमारी सभ्यता-संस्कृति-परंपरा के खिलाफ है।'

मैं हर उस क्रिया-प्रतिक्रिया का स्वागत करती हूं जो मेरे लेखन या विचार की सहमति में आए या असहमति में। असहमतियां मेरे लेखन-विचार को ज्यादा 'मजबूत' बनाती हैं क्योंकि उनमें तर्क-वितर्क की संभावनाएं अधिक होती हैं।

खैर, जिन्हें ऐसा महसूस होता है कि मैं स्त्री-विमर्श को समझने में 'कमजोर' रही हूं या स्त्री-देह पर बात अधिक करती हूं तो उनसे इतना ही कहूंगी मैं 'बंधनों में रहकर' या 'लकीर का फकीर' बने रहना नहीं चाहती। मुद्दतों से जिस शब्द स्त्री-विमर्श को आदि-अंत मानकर स्वीकार लिया गया है मैं उसे नहीं मानती। न ही इस शब्द के प्रति मेरी कोई व्यक्तिगत या लेखिकीय सहानुभूति है।

पश्चिम से उधार लिए गए इस शब्द (स्त्री-विमर्श) पर हम सदियों से बहस करते चले आ रहे हैं मगर नतीजा 'शून्य' ही रहा है। इसके शून्य रहने का कारण भी है क्योंकि हमने स्त्री-विमर्श को 'देह से आगे' और 'देह से बाहर' जाने ही नहीं दिया। स्त्री-विमर्श या देह-विमर्श से आगे भी कोई स्त्री या उसका वजूद होता है हमने कभी जानने या समझने की कोशिश ही नहीं की। करते भी क्यों और कैसे? क्योंकि हमारे बुद्धिजीवि वर्ग ने स्त्री-विमर्श को अपनी 'जोरू' बनाकर जो रख छोड़ा है।

उन्हें जब भी स्त्री-विमर्श पर बात या बहस करनी होती है पहले अपनी जोरू को चाट-पकौड़ी खिलाकर उसे चटपटी-मसालेदार बनाते हैं फिर उसकी 'देह की चाट' से अपने कथित विमर्श को शांत करते हैं। उन्हें स्त्री-विमर्श नहीं केवल स्त्री की गर्दन और कमर से नीचे का लज़ीज स्वाद चाहिए ताकि उसके दमपर स्त्री-विमर्श किया जा सके। स्त्री उनके लिए देह थी, देह है और देह ही रहेगी।

एक बात और। कुछ 'पीड़ित लेखिकाएं' कह रही हैं कि 'स्त्री-विमर्श की ताकत के सहारे अब स्त्रियां खुल रही हैं। अपनी देह के मायने समझने लगी हैं।'

वाह! क्या तर्क रखा है पीड़ित लेखिकाओं ने। स्त्री-विमर्श में अगर ताकत होती तो आज 21वीं सदी में भी स्त्री की देह और अधिकार का फैसला पुरुष नहीं स्त्री ही कर रही होती। विवाह-संस्था तब पुरुषों की नहीं स्त्रियों की गुलाम होती। शादी की पहली रात मर्द के मर्द होने का सर्टिफिकेट मर्द नहीं स्त्री उसे देती। अगर तुमने स्त्री को देह के मायने समझाए होते तो आज मर्द का स्त्री की देह पर नहीं बल्कि स्त्री का अपनी देह के साथ मर्द की देह पर भी एकाधिकार होता।

स्त्री-विमर्श की पैरवी कर रहीं पीड़ित लेखिकाओं से मेरा कहना है कि एक बार वो अपने 'खोखले विमर्श' से बाहर आकर उस स्त्री को देखें, उसके संघर्ष, उसके त्याग को समझें जो दिनभर यहां-वहां मजदूरी कर मुश्किल से 15-20 रुपए कमा पाती है और दिनभर मजदूरी के बाद घर लौटकर घर में मजदूरी करती है तब उसके पास जाकर उससे पूछें कि तुम स्त्री-विमर्श के बारे में कितना और कहां तक जानती हो? अरे, 'ठंडे कमरों' में बैठकर 'गर्म स्त्री-विमर्श' करने से न स्त्री देह से मुक्त हो पाएगी न अपनी गुलामी से।

खोखले ढकोसले गढ लेने भर से कभी कोई विमर्श सार्थक नहीं हो सकता इसलिए मैं इस कथित स्त्री-विमर्श को सिरे से नकारती हूं, अब आप जो समझें।

अनुजा के ब्लाग मत-विमत से साभार

1 comment:

Anonymous said...

mai aap ki bat se sahmat hu.kahne ko stri free hau lekin aisa kuch nahi aaj bhi stri kahi na kahi vo kisi sahare per chal rahi hai apne her niany me purus ki dasi banker hi kam kerti hai.stri vimers me un chote tabko ke khito ko dekhna chahiye.deh vyaper me fashi un mahilao ki sthiti ki bat kerni chahiye gher me mansik aajadi ke liye bachain aurto ki bat kerni chahiye.sirf padhne se stri apne asstiv ko nahi pa sakti .sab se badi bat vo jab tak aarthik rup se nahi kadhi hogi tab tak kitne stri vimesh ho ho dabi kuch hi hogi.ye sansar ka kauda sach hai