आधुनिक शिष्य किताबी सूत्रों से आगे का सवाल दागता है। गुरूजी! विपक्ष क्या होता है? प्रश्न तार्किक था, और शिष्य की जिज्ञासा से सहमति भी थी। किंतु, इस तारांकित प्रश्न के भाव को परिप्रेक्ष्य से जोड़कर परिभाषित करना कृष्ण - अर्जुन के संवाद जैसा था। जहां से गीता का अवतरण हुआ। विवेक की खिड़कियां खोलते हुए मैंने सवाल पर लक्ष्य साधा। विपक्ष अर्थात पुष्टि और संतुष्टि के बाद भी भूख के स्थायी भाव में प्रविष्ट होना या कि डनलप पर सोने के आभास के चलते पत्थरों पर सलवटें डालने जैसा। मैंने बताया। लेकिन शिष्य की भूख अब भी शांत नहीं थी। मानो कि विपक्ष उसमें अवतरित होने लगा हो और शायद उसकी संदर्भ में शामिल होने की अकुलाहट बढ़ने लगी थी। गुरूजी पहेलियों को बुझने का समय नहीं है। चुनाव सामने हैं और चेहरों पर अभी भी धुंध जमी हुई है। शिष्य की आतुरता कुछ अधिक बढ़ती प्रतीत दी। मुझे लगा कि चेला गुरू की मुद्रा में बेंत लेकर सामने खड़ा है और मैं उसके सामने निरीह प्राणी सा मिमिया रहा हूं।साफ था कि, वह मेरे उत्तरों से तृप्त नहीं था। हे पार्थ! विपक्ष हमेशा अपने अग्रज पक्ष को प्रताड़ित कर हतोत्साहित करने को उतावला रहता है। वह किसी तीसरे या चौथे की भूमिका को भी मंजूर नहीं करता। हां चाहता है कि, सुर मिलाने के लिए वे भी उसके पाले में ही खड़े हों। जबकि यह कभी-कभी ही मुमकिन होता है। यहां उसकी क्रियाशीलता मुख्य विपक्षी के रूप में बलवती रहती है। उसका बड़ा गुण यह है कि वह पक्ष से सदा असहमत रहते हुए उसकी समतल विकसित सड़क पर भी आड़ा टेड़ा नाचता है। वह ‘नाच न जाने......‘की ढपोरशंखी को नकारते हुए इस विकास को ही ऊबड़ - खाबड़ सिद्ध करता है। विकसित मार्ग को प्रगति में बाधक ठहराने में उसे कभी कोई हिचक नहीं होती है। क्योंकि, निर्माण की आधुनिक व बुनियादी तकनीकी मात्र को वह अपने झोले में रखता है। यही आत्ममुग्धता उसकी पूंजी भी होती है। यही विपक्ष रहस्य के परदे की डोर खिंचकर बताता है कि, गांडीव और भीष्म शैय्या के तीर उसके पास ही हैं। किसी कथित तीसरे और चौथे के पास नहीं।शिष्य ‘गीता ज्ञान‘ का सहारा लेकर कहता है कि, गुरूवर क्या विपक्ष को कर्मण्येवादिका रस्ते.......... का सूक्त भी याद नहीं रहता है? क्या उनका आचरण तदानुरूप नहीं हो सकता। अवाक होने कि स्थिति से बचते हुए मैंने कहा, वत्स! निश्चत ही यह सूक्त उनके संज्ञान में है। किंतु, जैसे कि अक्सर अधिकारी पल्लू झाड़ने के निमित्त अज्ञानता का आवरण ओढ़ लेते हैं। ऐसी ही समभाव स्थिति विपक्ष की होती है। लेकिन तब भी वे अपने सकर्मों या दुष्कर्मां को फलित के गांडीव पर साध ही लेते हैं। उनमें मछली की आंख को भेद लेने की निश्चिन्ता रहती है। क्योंकि इस विराट भू - बैराट में स्वयंभू ही समृद्ध और सुरक्षित है। गुरूवर आशय का रेखाचित्र यों तो अब मेरे मानस में आकृत होने लगा है, तब भी क्या आप जीवंत उदाहरण प्रसंग में शामिल करेंगे। वत्स! जब निकटस्थ चुनाव का सूर्योदय समीप है तो अभी से कौरव सेना के कई धुंधवीर अन्धेरों में ही अभ्यासरत हो चुके हैं। यहां तक कि एकलव्य भी द्रोणाचार्यों की प्रदक्षिणा कर अपनी भूमिका को तय कर लेना चाहते हैं। तो दूसरी तरफ द्रोण अपने अर्जुनों का पथ निष्कंटक करने की नियत से एकलव्यों का अंगुठा खरीद लेना ही श्रेयकर समझते हैं। वहीं इस महासंग्राम के सजीव प्रसारक ’संजय’ भविष्य के गर्भ में से तमाम गुलमफेंट कर मनमाफिक रणवीरों को पांत दर पांत सेटल करने को व्यग्र दिखते हैं। ताकि एक तरफ एक्सक्लूसिव का बोर्ड लटकाकर अपने आकाओं को तुष्ट कर सकें और दुसरी ओर वे पक्ष या विपक्ष का हितैषी होने के भाव को भी भांज सकें। हे सारथी! आप विषयान्तर में प्रविष्ट हो चुके हैं। ऐसा न हो कि चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर आप निरूत्तर हो जायें। शिष्य ने जैसे मेरे तांगे के मनमाफिक पथचालन का परिसीमन कर दिया था। यानि हद से हद ’रामगढ़’ तक। मैंने भी सॉरी फील किया। दरअसल वत्स एक ओर विपक्ष मूर्त दिखता है तो दूसरी तरफ सत्ता के भीतर का अमूर्त संभावनाओं पर टिका पक्ष भी कई मायने में विपक्ष होता है। शायद यह मान लेना अतिरेक जैसा है कि, सत्ता से पृथक ही विपक्ष होता है। सत्ता केंद्रित विपक्ष कई बार भीष्म के समक्ष शिखंण्डियों को लाकर खड़ा कर देता है। इसलिए विपक्ष अर्थार्थ वह सीमांकन भी है, जिसमें बिल्लियां झगड़े के कारण ’सुख’ से वंचित रह जाती हैं। इसलिए विपक्ष तमाम प्रोपगण्डों के जरिये गण्डे ताबिज बांधने की तजबीज करता है। ताकि हर सुबह की पहली किरण उन्हें भरपूर गरमाहट दे सके।अब तक चेला लॉजिक के दायरे में प्रवेश कर चुका था। मैंने कहा, वत्स! पार्टी पालिटिक्स पर विश्वास करें तो सूत्र, सूक्त या सिद्धान्त इस ‘भू‘ पर निर्दिष्ट नहीं होते हैं, बल्कि यहां पार्टी का अलिखित संविधान ही अक्सर मूर्त माना जाता है। जोकि लचीला, डिसपोजेबल और एवरयूज भी होता है। ताकि आख्याओं को माफिक तौर पर भूना और चबाया भी जा सके। अतएव वत्स! रैंप से इतर जब पैरों पर वाक की जाती है तो उस कला को फूहड़ और भौंडा माना जाता है, और हमेशा ऐसे रास्तों से कालीन खींच लिए जाते हैं। मैंने कंटीन्यू रहते हुए शिष्य को मौका ही नहीं दिया.......विपक्ष तीसरे या चौथे का हिमायती नहीं होता है। वह केवल पहले का विपक्ष होता है। गुरूजी! क्या मानना चाहिए कि वह जिनसे अपेक्षा रखता है क्या उनकी रवायतों का भी पक्षकार होता है ? हे प्रिय! संवाद का यही तर्क उन्हें असहनीय लगता है। क्योंकि सत्ता का जनपथ यहां से होकर नहीं गुजरता है। वे हमेशा अपने पीछे पांवों का निशान छोड़ने के बजाय राह में दरारें पैदा करते चलते हैं। ताकि अन्य कोई भी दनदनाता हुआ जनपथ तक न पहुंच सके। आखिर इन्हीं दरारों के बीच से ही तो फिक्स बजट का सोरबा निकलता है। अक्सर यही दरारें ’क्राइराग’ में उसकी सहायक भी सिद्ध होतीं हैं। लिहाजा यह मानना कि विपक्ष, पक्ष का विपक्ष होते हुए ’जन’ का पक्षधर होता है, बेहद मुश्किल है। सिद्धू स्टाइल में शिष्य ने सवाल दागा, गुरू! यदि एक वाक्य में कहें ........? और अधूरे प्रश्न के साथ सामने आ डटा। मैंने कहा, बेटा इसे कुछ ऐसा समझ लो कि विपक्ष पक्ष के विरूद्ध और सम्मति के अवरोधक के समानार्थक भाव जैसा हैं। अब भी मुझे लगा कि शिष्य तृप्ति अधुरी थी। किंतु मेरी भी तो सीमायें थीं।
9.10.10
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