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4.3.11

तू न कहना कभी

तू न कहना कभी महफ़िल को सजाने के लिए ,
ये तमाशा तो है कुछ अश्क छुपाने के लिए ।
जल गए हैं जो खुद वो कर रहे हैं दीवाली ,
उनकी साजिश है अब औरों को जलाने के लिए ।

देखना चाहते हो जख्म तो बब्बर दिल के ,
कितने आंसू हैं तेरे पास बहाने के लिए ?

आईना देख ले एक बार तू असली सूरत ,
और देदे मुझे एक रंग जमाने के लिए ।

2 comments:

mridula pradhan said...

कम से कम उस दिए की "लौ " तो ना बुझने पाए--
wah....bahot khoob...

Dr Om Prakash Pandey said...

dher sara dhanywaad , Mridulaji !