अब गंभीर चेहरे मत बनाइएगा। झूठे सांत्वना के शब्द मत उगलिएगा। सच्ची ही होगी, किन्तु श्रद्धांजलि मत दीजिएगा। पाकिस्तान का नाम मत लीजिएगा। ख़ासकर उसे सुबूत सौंपने की हल्की बात मत कहिएगा। आपात बैठकें लेते रहें, किन्तु उनमें कितनी ठोस बातें कीं, यह मत बताइएगा।
घिन आती है। घबराहट होती है। घुटन होती है।
चाहे जैसी सत्ता चलाते रहें, लेकिन हम आम लोगों को ख़ास सपने मत दिखाइएगा। आतंक के विरुद्ध युद्ध का दावा तो भूलकर भी मत कीजिएगा। मुंबई के सिलसिलेवार धमाकों पर भी भारी पड़ने वाले वाचालों को तो बिल्कुल मत बोलने दीजिएगा। गेटवे के विस्फोटों से लेकर 26/11 के हमलों में किए कागजी उपायों को मत दोहराइएगा। और सुरक्षा के लिए चिंता या कड़े कदम अब कतई मत उठाइएगा।
टीस सी उठती है। टूट से जाते हैं। टकराकर लौट आती है- हर आस।
हमलों से समूचा राष्ट्र भले ही दहल गया हो, आप हिम्मत मत दिखाइएगा। अकेले मुंबई में ही 1993 से सिलसिलेवार हमलों में अब तक 700 निर्दोषों की जान जाने के सिलसिले पर बेबसी मत जताइएगा। और सबसे बढ़कर, कार्रवाई करने का श्रेय लेने की तो कोशिश भी मत कीजिएगा। गृहमंत्री को मत हटाइएगा। मुख्यमंत्री मत बदलिएगा। शिवराज पाटिलों, अशोक चव्हाणों के उदाहरण मत सुनाइएगा।
कर्कश लगते हैं। कान फटते हैं। कुंठा बढ़ाते हैं।
और सबसे अलग मुद्दा- हमारे देश को हमारा देश ही रहने दें, विश्व शक्ति मत बनाइएगा। एटमी सौदे को ‘मान’ का प्रश्न बनाया, लेकिन आतंकी धमाकों को रोकने में जान मत लगाइएगा। पौने दो लाख करोड़ का 2जी घोटाला करवाइएगा, लेकिन आतंक की सेकंड और थर्ड जनरेशन को मत पहचानिएगा। घोटालों के टेप खुफिया तरीके से लीक होने से नाराज़ हुए थे, लेकिन देश की सुरक्षा लीक करने वाले खुफिया अमले को कुछ न कहिएगा। खेलों, अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थानों को लुटते देखिएगा किन्तु सैकड़ों मासूमों को बेसहारा-बर्बाद होते मत देखिएगा।
धधक जाते हैं। धड़कनें तेज हो जाती हैं। ‘धिक्कार है’- मन के भीतर से निकलता है।
पहले वे थे- तो कहते थे, ‘सब्र का बांध टूटने वाला है,’ अब आप हैं, कहा था, अगली बार सहन नहीं करेंगे। वे हमें तोड़ गए किन्तु सब्र न छोड़ा। आप का ‘अगली बार’ आ गया, जीवन के शिखर पर सचमुच अवसर है, सहन मत कीजिएगा।
कई व्यवस्थाएं स्वत: कायर होती हैं। इर्द-गिर्द नाकारा घेरा हो तो नेतृत्व भी अकर्मण्य हो जाता है। कायरता, वीरता को धकेल देती है। किन्तु इतनी बड़ी सेना में कुछ तो योद्धा होंगे? उन्हें ईश्वर के लिए, देश के लिए, मत रोकिएगा।
(लेखक दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर हैं।)
3 comments:
हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हजारो साल पहले की तरह आज भी इस देश में जयचंदों और विभीषण जैसे लोगों की भरमार है | पहले ये गद्दार राजा के खिलाफ गद्दारी करते थे, परन्तु आज राजा ही गद्दार है| उसे इस देश के स्वाभिमान, संस्कृति, सभ्यता आदि से कुछ लेना देना नहीं है| उसे सिर्फ और सिर्फ अपनी जेब भरना है और विश्व के सबसे बड़े आतंकवादी देश अमेरिका की गुलामी करना है| जब कि आज भी हमारे देश के सैनिकों में इतना दम है कि वे पूरे योरप पर पैदल ही कब्ज़ा कर सकते हैं| लेकिन इन हीजड़ों कि सरकार ने उन्हें भी बांध दिया है|
बहुत सहन शक्ति है --
अब तो सहन शक्ति की परीक्षा की भी बात नहीं निकलती जुबान से |
३१ माह बचाया तो--
जिंदगी भर का ठिका ले रखा है क्या मुंबई को बचाने का |
भैया लगे हाथ ये भी बता दो की देश को बचाने का ठेका कितने दिनों का लिया है |
क्या कुछ युद्ध जीते हो अगले का क्या ??
हर-हर बम-बम
बम-बम धम-धम |
थम-थम, गम-गम,
हम-हम, नम-नम|
शठ-शम शठ-शम
व्यर्थम - व्यर्थम |
दम-ख़म, बम-बम,
तम-कम, हर-दम |
समदन सम-सम,
समरथ सब हम | समदन = युद्ध
अनरथ कर कम
चट-पट भर दम |
भकभक जल यम
मरदन मरहम ||
राहुल उवाच : कई देशों में तो, बम विस्फोट दिनचर्या में शामिल है |
Dear Mr. Kalpesh Yagnik,
आशावान होना
निराशमय होने से
बेहतर अवश्य है
पर
सद्चितानंद होना नहीं है
This is a feedback regarding your today's article on front page of the one and only Dainik Bhaskar which does not find any shame in indulging in calling itself "भारत का सबसे बड़ा समाचार पत्र समूह"
This egoistic claim inspite of knowing the fact that the real Bhaskar never ever needed to claim so.
feedback:
'Calling voters बेचारा is mere कल्पना of a कलपता हुआ कल्प-ऐश who continuously burns YaYa in the अग्नि of a कल अपना है type of pathetic illusion without ever concentrating or realizing the present fact that the Dainik Bhaskari भ्रष्टाचार is पनपing within us all the time by completely ignoring the voice of conscience in NOW and HERE - आज और अभी
आमीन
सूम आमीन
मतलब,
शुभ हो, शीघ्र हो, स्वास्थवर्धक हो, शून्य्कारक हो, प्रभु मंशा से हो, वालियों की मन्नत से हो...
और
जब में ये कहता हूँ की "हो" तो तो इसका ये मतलब नहीं की की 'कभी हो, होगा या होना चाहिए'
क्यूंकि,
ऐसा समझ लेना ये मान लेना है की अभी और यहाँ जो है या जो हो रहा है उस से हम आनंदित नहीं, संतुष्ट नहीं - दुखी हैं, असंतुष्ट हैं और वो भी पूर्ण रूप से...
क्या इस दुनिया में जो भी हो रहा है वो समुचित रूप से दुखदायी है..??
क्या हम सत्कर्म, सद्कार्य, सहजता देख पाने में पूरी तरह अक्षम हैं..??
क्या हमें सिर्फ अन्धकार ही अन्धकार नज़र आ रहा है..??
क्या हमें कहीं कोई नूर, कोई रौशनी नज़र नहीं आती..??
क्या पड़, नाम, धन-दौलत, सफलता के अलावा हमें खुदा, इश्वर, god का रुतबा कहीं दिखाई नहीं पड़ता..??
क्या हम इतने अहंकारी, इतने भ्रष्टाचारी, इतने बलात्कारी हो चुके हैं की हम में से इश्क और ईमान पूरी तरह से गायब हो गए हैं..??
क्या हम कभी खुद को वाकई बदलना चाहेंगे या बदलाव की अपेक्षा सिर्फ दूसरों से ही करते रहेंगे..??
क्या हम सिर्फ राम राज्य के स्वप्न ही देखते रहेंगे या अपनी दैनिक भास्करी दिनचर्या में पल-पल राम जी को जिंदा रखने का प्रयत्न भी करेंगे..??
क्या आप कभी जवाब भी देंगे कल्पेश याग्निक जी या सिर्फ सवाल ही करते रहेंगे..??
बोलिए जनाब बोलिए
दिल के राज खोलिए
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