प्रथम पुरुष स्त्रीवादी :आदिकवि वाल्मीकि
भूतल के प्रथम काव्य ''रामायण '' के रचनाकार श्री वाल्मीकि ने अपने इस वेदतुल्य आदिकाव्य ''रामायण'' द्वारा न केवल मर्यादा मूर्ति श्री राम के चरित्र की रचना की बल्कि तत्कालीन समाज में स्त्री -जीवन की समस्याओं का यथार्थ चित्रण भी किया है .न केवल एक रचनाकार के रूप में वरन स्वयं ''रामायण'' के ''उत्तरकाण्ड '' के ''षणवतित्म: [९६ ] ''सर्ग में सीता की शुद्धता का समर्थन करते हुए-उन्होंने यह सिद्ध किया है कि वह सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में प्रथम पुरुष स्त्रीवादी थे .पश्चिम से नारीवाद की उत्पत्ति बतलाने वाले विद्वान भी यदि ''रामायण ''में महर्षि वाल्मीकि द्वारा चित्रित स्त्री जाति की समस्याओं ,स्त्री संघर्ष ,स्त्री -चेतना का अध्ययन करें तो निश्चित रूप से वे भी यह मानने के लिए बाध्य होंगे कि जितना प्राचीन विश्व का इतिहास है utna ही प्राचीन है -स्त्री जाति के संघर्ष का इतिहास -वह स्त्री चाहे देव योनि की हो अथवा राक्षस जाति की .
''स्त्री जाति की हीन दशा ''वर्तमान में जितना बड़ा बहस का मुद्दा बन चुका है ,उसे उठाने का shery महर्षि वाल्मीकि को ही जाता है .राजा दशरथ के पुत्र -प्राप्ति हेतु लालायित होने को महर्षि इस श्लोक के द्वारा उकेरते हैं -
''तस्य चैवंप्रभावस्य ............''[बालकाण्डे ;अष्टम:सर्ग:;
श्लोक-१] अर्थात सम्पूर्ण धर्मो को जानने वाले महात्मा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्रों के लिए सदा चिंतित रहते थे .उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था .]''
स्त्री की हीन दशा का मुख्य कारक जहाँ यह था कि पुत्री को वंश चलाने वाला नहीं माना जाता था वही पुरुष-प्रधान समाज में कन्या का पिता hona भी अपमानजनक माना जाने लगा था .महर्षि वाल्मीकि भगवती सीता के मुख से इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं-
'सदृशाच्चापकृष्ताच्च ........''[अयोध्याकांडे अष्टादशाधिकशततम:
सर्ग: ,श्लोक -३५ ][अर्थात संसार में कन्या के पिता को ,वह भूतल पर इंद्र के तुल्य क्यों न हो ,वर पक्ष के लोंगों से ,वे समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों ,प्राय: अपमान उठाना पड़ता है ]
[शेष अगली पोस्ट में ]
शिखा कौशिक
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2 comments:
bahut sundar prastuti.agli post ka intzar rahega .
आपकी मौलिक सोच और नये दृष्टिकोण की दाद देता हूँ। इससे पहले शायद ही किसी ने वाल्मीकि के बारे में इस नजरिये से सोचा होगा।
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