नामवर सिंह को युवालेखन पसंद है।
युवाओं को प्रोत्साहित करना उनके स्वभाव का सामान्य अंग है। लेकिन युवा संस्कृति
को वे सरलीकरणों के जरिए व्याख्यायित करते हैं। युवाओं को सरलीकरणों के जरिए नहीं
समझा जा सकता। युवाओं के साहित्य को परिवार,स्कूली शिक्षा के दर्शन ,मासकल्चर और
मासमीडिया के प्रभाव के बिना नहीं समझा जा सकता।
युवामन का सारा ताना-बाना परिवार और
शिक्षा के मूल्यों से गुजरते हुए बनता है।इसको पूंजीवादी आग्रहों- पूर्वाग्रहों के
जरिए गति मिलती है।वह एक व्यापक जटिल लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समझ में आ सकता
है। विद्रोही युवामन को फार्मूलों से नहीं
समझा जा सकता। नामवरसिंह का एक महत्वपूर्ण लेख "युवा लेखन पर बहस"(1968)
हमारे सामने है। यह युवाफार्मूलेबाजी के आधार पर लिखा गया आदर्श लेख है। नेट पर यह
पाखी पत्रिका के नामवरसिंह विशेषांक में उपलब्ध है। यह लेख 1968 में लिखा गया। यानी नामवरसिंह उस
समय युवा थे। इस लेख में नामवरसिंह ने कई महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान खींचा है।
पहली मार्के की बात यह कही है कि "बहुतों के लिए आज भी युवा पीढ़ी ''काल्पनिक'' नहीं तो ''अमूर्त'' अवश्य है।" लेकिन
युवाओं के बारे में अमूर्तन तो इस लेख में भी है।
सवाल यह है कि यह अमूर्तबोध कहां से आता है ? यह अमूर्तबोध युवाओं के यथार्थजगत
अज्ञान से पैदा होता। युवाओं के प्रति अमूर्तनता का गहरा संबंध बच्चे के प्रति
पिता-माता के उपेक्षाभाव से है। यह उपेक्षाभाव हिन्दीभाषी परिवारों में बच्चे के
प्रति बचपन से ही व्यक्त होना शुरू हो जाता है। जिस जमाने में नामवर सिंह ने यह
लेख लिखा था उस समय हिन्दीभाषी समाज में बच्चों के प्रति उपेक्षा का भावबोध चरम पर
था। आज भी है। हिन्दीभाषी परिवार बच्चे की देखभाल सही ढ़ंग से नहीं करते। बच्चा
रामभरोसे बड़ा होता है। घनघोर उपेक्षा और प्यार का अभाव हिन्दी युवा मानस को किस
रूप में बनाता होगा इस ओर नामवर सिंह ने एकदम ध्यान नहीं खींचा है।
हमारे युवालेखकों की मनोदशाएं
परिवार और स्कूली शिक्षा के ढ़ांचे से गहरे प्रभावित हैं । युवामन कैसा होगा,यह
फैसला इस आधार पर होगा कि परिवार और स्कूली शिक्षा का बच्चे के प्रति नजरिया क्या
है ? जिन युवा विद्रोही लेखकों की नामवर सिंह ने विवेचना की है। आश्चर्य की बात है
उनके विद्रोह के भावबोध में स्कूली शिक्षा और परिवार की भूमिका को नामवरसिंह एकदम
भूल गए। क्या यह भूलना अनायास है ?
हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि व्यक्तित्व निर्माण में परिवार और
स्कूली शिक्षा की बड़ी भूमिका होती है। हिन्दी आलोचना की मुश्किल यह है कि वह
कहानी से कहानी, कविता से कविता की ओर विचरण करती है। नामवर सिंह की समूची
सैद्धांतिकी रूपवादी है।वह एक विद्रोहीभाव से दूसरे विद्रोही भाव की ओर विचरण करती
है। उसमें युवाओं के बारे में सरलीकरण और पापुलिज्म एक साथ चले आया है। युवाओं की
पीठ थपथपाकर, प्रशंसा करके या महज उनके लिखे के आधार पर नहीं समझा जा सकता। युवा
के मन की संरचनाओं का परिवार और स्कूली शिक्षा के ताने-बाने और मूल्यबोध के साथ
गहरा संबंध है।
किसी भी लेखक को जानने के लिए बचपन बहुत बड़ा आईना है। बागी लेखक उन्हीं
परिवारों में जन्म लेते हैं जहां बच्चे उपेक्षा के शिकार हैं या जहां पर शिक्षा से
बच्चे को मानसिक संतोष और सुख नहीं मिलता। शिक्षा जब अशांत रखती है तो बागी भावबोध
पैदा होने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं। अतःप्रत्येक कवि की अलग- अलग विवेचना की
जानी चाहिए। इस मामले में सरलीकरण से काम वहीं लेना चाहिए।
हमारी स्कूली शिक्षा बच्चों को स्मार्ट कम और भोंदू ज्यादा बनाती है।साठोत्तरी
दौर के लेखकों की स्कूली शिक्षा पर ध्यान दें , उस जमाने में शिक्षा में हुनर नहीं
सिखाया जाता था। सत्तर के बाद के वर्षों में हुनर की शिक्षा का तंत्र व्यापक
पैमाने पर सामने आता है। विभिन्न लेखक अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए हैं , इसका उनकी
भाषा, विचार, आचार-संहिता आदि पर भी असर पड़ा।
मध्यवर्गीय परिवार और गरीब परिवार के बच्चे की मनोदशा एक जैसी नहीं होती। इनका
व्यक्तित्व विकास भी भिन्न ढ़ंग से होता है। प्रत्येक बच्चा अपने साथ परिवार के
सांस्कृतिक वातावरण से बनता है। यदि एक जैसी पृष्ठभूमि से दो लेखक आ रहे हैं तो
उनकी व्यक्तिगत क्षमताएं और सर्जनात्मकता तय करेगी कि कौन किससे बेहतर है, कितनी
लंबी रेस का घोड़ा है।
हमारी स्कूली शिक्षा छोटे-बड़े, अमीर-गरीब के
भेद को बच्चों के ज़ेहन में बिठाती है। वर्गीय पूर्वाग्रहों और वर्गीय
प्रवृत्तियों को जीवन का अंग बनाती है। कुलीन,खेतमजदूर,किसान,ज्ञानी,अज्ञानी आदि
में विभाजित करके देखने की बुद्धि देती है। बच्चों में आरंभ से ही अहंकारबोध पैदा
किया जाता है।स्कूली शिक्षा में संघर्षभावना का एकसिरे अभाव है।गरीब और
निम्नमध्यवर्ग के बच्चों को हमेशा सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया जाता है। इस सहिष्णुता
से वास्तव जिंदगी का कोई मेल नहीं है।
हमारी स्कूली शिक्षा बच्चे में
प्रश्नाकुलता पैदा नहीं करती। वह बच्चों को अधीनता और आलोचनारहित भावना की शिक्षा
देती है। स्कूलों में इतिहास के नाम पर छद्म-देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। लोकतंत्र
का पाठ कम उपयोगितावाद का पाठ ज्यादा पढ़ाया जाता है। देश को देने की बजाय पाने की
भावना पैदा की जाती है। यही वह परिवेश है जो हिन्दीलेखक के मनोजगत तो मथता रहा है।
लोकतंत्र हमेशा बच्चों की शिक्षा में उपदेशधर्मी भाव से पढ़ाया जाता है।निषेध
एक स्थायी भाव है . यह करो और यह न करो। बच्चे के मन में आरंभ से एक ही शिक्षा दी
जाती है कि वह अधीन है। कहा जाता है वह माता-पिता के अधीन है, शिक्षक के अधीन है।
अधीन भावबोध को पैदा करने में स्कूली मास्टर का अनुशासन सबसे बड़ा स्रोत है। बच्चे
को कोई ऐसी चीज करने नहीं दी जाती जो वह करना चाहता है,क्योंकि वह अधीन है।
असल में बच्चा ऐसी सामग्री है जिसके जरिए राज्य अपने काम पूरे करेगा और उसे
लूटेगा। यही वह स्कूली शिक्षा का पुराना परिवेश है जिसमें साठोत्तरी युवालेखन पैदा
हुआ है। साठोत्तरी युवा लेखकों में अधिकतर गैर-अभिजन पृष्ठभूमि से आए थे। उनके
अंदर जो आक्रोश था वह देशज शैक्षणिक और पारिवारिक अंतर्विरोधों की देन था।
नामवर सिंह के अनुसार "कहने
की आवश्यकता नहीं कि प्रायः हर दशक बाद साहित्यों में एक नयी पीढ़ी का उदय होता है।
युवा-सुलभ विद्रोह भर पीढ़ी में दिखता है। विद्रोह के ये अंदाज भी उतने ही
जाने-पहचाने हो चले हैं जितने प्रतिरोध के प्रयास, जैसे
परंपराद्रोह, विदेशी अनुकरण, असाहित्यिकता,
असामाजिकता अश्लीलता आदि। आरोप-प्रत्यारोप का ढाँचा वही रहता है,
मुहावरे अलबत्ता बदल जाते हैं। मजा उस ढाँचे को दुहराने में नहीं,
नए मुहावरों में है, क्योंकि हर पीढ़ी के साथ साहित्य में जो
कुछ नया आता है वह इन्हीं मुहावरों के सहारे समझा जा सकता है।"
"युवा
लेखन के संदर्भ में इस्तेमाल किये जाने वाले विद्रोह, आक्रोश,
अस्वीकृति, असहमति, आक्रामकता
आदि अमूर्त भाव वाचक संज्ञाए इसी प्रकार के नये मुहावरे हैं। इतिहास में जिस
प्रकार युवा पीढ़ी के साथ ये नये मुहावरे आए उनसे और कुछ नहीं तो इतना तो स्पष्ट हो
ही जाता है कि सोचने समझने की दिशा में परिवर्तन हो रहा है।"
नामवर सिंह साठोत्तरी पीढ़ी को पुराने किस्म के वर्गीकरण में बाँधकर देखते
हैं। वे पीढ़ियों का अंतर देखते हैं इसमें पुरानी पीढ़ी वह है जो आजादी की जंग में
तपकर आयी थी , नई पीढ़ी आजादी के बाद आई है।नामवर सिंह ने लिखा है , "
'नाम' की तलाश से स्पष्ट है कि यह युवा पीढ़ी भी हर
पीढ़ी की तरह अपनी भिन्नता और विशिष्टता के लिये आग्रहशील है। विभिन्नता का आग्रह
यदि पहले से अधिक है तो इसलिए कि इतिहास में उसकी स्थिति पहले की सभी पीढ़ियों से
नितान्त भिन्न है यदि औरों का एक पाँव आजादी के पहले भारत में है तो युवा पीढ़ी ने
एकदम आजादी के बाद के भारत में ही आँखें खोलीं। और मामूली मालूम होने वाला यह अंतर
मानसिक गठन के स्तर पर बहुत बड़ा अन्तर डाल देता है। व्यक्ति के रूप में युवा
लेखकों का मानस-संस्कार स्वातंत्र्योत्तर भारत में बना तो इतिहास के रूप में फैलने
को मिला साठोत्तरी युग-परिवर्तन! व्यक्तित्व भी भिन्न, परिवेश
भी भिन्न। परिवेश और व्यक्तित्व का यह विशिष्ट घात-प्रतिघात ही युवा लेखन की
भिन्नता का आधार है।"
इस
अमूर्त पीढ़ी भेद में सबसे मूल्यवान चीज है लोकतंत्र और स्वाधीनता का वातावरण।
नामवर सिंह लोकतंत्र का उल्लेख नहीं करते। नयी पीढ़ी के पास लोकतंत्र का माहौल था।
लोकतंत्र में मानसिक गठन एकदम भिन्न किस्म का होता है। लोकतंत्र
अभिव्यक्ति,कार्य-व्यापार ,साहित्य आदि में असंख्य विकल्प देता है। प्रतिवाद उसका
अन्तर्ग्रथित हिस्सा है। लोकतंत्र में उनके लिए भी जगह है जो उसे स्वीकारते हैं ,और
उनके लिए भी जगह है जो उसे अस्वीकार करते हैं। खासकर अल्पसंख्यकों को ,जिनमें लेखक
भी आता है, उसे लोकतंत्र इफरात में स्थान देता है। अभिव्यक्ति के अनंत चैनल और
मीडियम प्रदान करता है।
भारत के लोकतंत्र का वातावरण पुराने साम्राज्यवादी शासन से एकदम भिन्न था। वहां
पराएपन का माहौल था,इसलिए उस समय हर व्यक्ति देश खोज रहा था। अपने लिए जगह खोज रहा
था।लोकतंत्र में यह माहौल बुनियादी तौर पर बदल जाता है। आजादी के भारत पुराने भारत
से भिन्न रूप में सामने आता है। नया संविधान, नई आजादी,नई स्वाभिमान की भाषा,नए
किस्म का औद्योगिक विकास और नए किस्म का कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य ,स्वतंत्र
मीडिया और न्यायपालिका।
लोकतंत्र के माहौल ने सामाजिक जीवन में एक
छलांग का काम किया है, व्यक्ति के विवेक और परिवेश को बुनियादी रूप से बदला है।
साठोत्तरी प्रतिवादी साहित्यिक तेवर ,लोकतंत्र के बदले माहौल के साथ युवालेखक की
कशमकश की देन हैं। यह कशमकश कमोबेश उन लेखकों में भी है जो बतर्ज नामवरजी पुरानी
पीढ़ी के हैं। युवालेखकों ने नए बदले लोकतांत्रिक माहौल को जल्दी समझा और उसके साथ
सामंजस्य बिठाया है बनिस्पत पुरानी पीढ़ी के।
लोकतंत्र
और लोकतांत्रिक माहौल बुनियादी प्रस्थान बिंदु है साठोत्तरी साहित्य का। सारी
मुठभेडें लोकतंत्र से हैं और लोकतंत्र के साथ एडजेस्टमेंट या सामंजस्य-विरोध के
आधार पर विकसित हुई हैं। साठोत्तरी साहित्य का प्रस्थान बिंदु लोकतंत्र है यह बात
नामवरजी स्पष्ट ढ़ंग से नहीं मानते बल्कि गोलमोल बातें कहते हैं।यहां वे पीढ़ियों
का संघर्ष देखते हैं। लिखा है, " यह व्यक्तिगत दुर्घटना नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक
अंतर है, जिसे स्वीकार किए बिना परिस्थिति को समझना असंभव है। इसी तरह
साठोत्तरी युग-परिवर्तन को लेकर उलझना भी कठमुल्लापन है।"
नामवरसिंह ने साठोत्तरी साहित्य के
प्रस्थान बिंदु का निर्धारण करते हुए लिखा है , "युवा लेखक के मिजाज को समझने का एक
तरीका यह हो सकता है कि उसमें सम्मूर्तित आदमी की ठोस तस्वीर से शुरू किया जाय,
जैसे कुछ लोगों ने 'लघु मानव' के
द्वारा 'नयी कविता' को परिभाषित करने का प्रयास किया। इस
दृष्टि से इतना तो तुरन्त कहा जा सकता है कि युवा लेखन उस 'लघु मानव'
का साहित्य नहीं है। केदारनाथ सिंह ने इस दिशा में एक संकेत दिया है
कि ''आज के कवि का 'मैं' एक वचन
उत्तम पुरुष का 'मैं' न होकर 'हम'
की तरह अमूर्त और व्यापक हो गया है। और ऐसा किसी बड़े आदर्श के प्रति
आग्रह के कारण नहीं, बल्कि अमानवीयकरण की एक बृहत्तर प्रक्रिया के
अंतर्गत अपने आप और बहुत कुछ कवि के अनजान में ही हो गया है।'' कहानियों
में यही 'मैं' व्याकरण की दृष्टि से उत्तम पुरुष एकवचन होते
हुए भी अर्थ की दृष्टि से प्रायः अन्य पुरुष एकवचन 'वह'
के रूप में आता है। हर हालत में नियामक है अमानवीकरण की प्रक्रिया। 'महामानव',
'साधारण मानव' और 'लघु मानव'
की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए चाहें तो इसे 'नगण्य
मानव' भी कह सकते हैं। कविता हो या कहानी- अधिकांश युवा-लेखन में निहित
मानव में गहरे स्तर पर अपनी नगण्यता का बोध बद्धमूल है। आत्मदया, असहायता,
आक्रोश, जिज्ञासा, उदासीनता
आदि सभी मनःस्थितियाँ इस नगण्यता से ही उत्पन्न और परिचालित होती है।"
असल में नयी पीढ़ी को आजादी मिलते ही लगा कि देश आजाद हुआ है तो अब तो सारी
जिम्मेदारी राज्य उठाएगा। जबकि लोकतंत्र में राज्य कभी व्यक्ति का बोझ नहीं उठाता।
बल्कि व्यक्ति को अपने जीवन को अपने आप तैयार करना होता है। कहीं न कहीं यह धारणा
थी कि आजादी मिलते ही दूध-घी की नदियाँ बहने लगेंगी। राज्य संस्कृति और सभ्यता की
रक्षा करेगा। कला और साहित्य को
फलने-फूलने का आधार प्रदान करेगा। इस काल्पनिक धारणा का लोकतंत्र के माहौल से कोई
संबंध नहीं था। लोकतंत्र मनुष्य को संघर्ष के लिए लंबे पंजे और तेज दांत प्रदान
करता है। व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व प्रतिस्पर्धी. पैना और धारदार बनाना होता है।
लोकतंत्र में हर चीज अर्जित करनी होती है।यहां तक कि अपनी पहचान भी अर्जित करने के
लिए संघर्ष करना होता है। लोकतंत्र में न तो शिक्षा अपने आप मिलती है, न
नौकरी मिलती है और न मान-सम्मान मिलता है और न लेखक की पहचान ही अपने आप मिलती है।
हर चीज पाने के लिए पहल और संघर्ष करनी होती है।
लोकतंत्र में कोई भी चीज खैरात में नहीं मिलती ।लोकतांत्रिक हक या लोकतांत्रिक
माहौल धर्मादा दान-पुण्य में भी नहीं मिलते। वे मात्र सदइच्छा या आशीर्वाद या
काव्यलेखन से भी नहीं मिलते।उन्हें संघर्ष करके अर्जित करना पड़ता है। हिन्दी
लेखकों की बड़ी संख्या इस तथ्य से उस समय तक अनभिज्ञ थी।
एक चीज और वह यह कि लोकतंत्र
नारेबाजी या विचारधारा या आंदोलन मात्र से अर्जित नहीं होता आपको अपना निजी कौशल
पेशेवराना ढ़ंग से विकसित करना होता है। व्यक्तित्व को सजाना-संवारना होता है।
व्यक्तित्व को सजाए-संवारे बिना और परजीविता को त्यागे बिना यदि कोई लोकतंत्र में
पाना चाहता है तो उसे असफलता मिलने के चांस ज्यादा हैं।
दूसरी एक बड़ी आयरनी यह थी कि
युवालेखकों में बुर्जुआ लोकतंत्र को व्यापक असंतोष था वे इसमें कोई भी सकारात्मक
तत्व देख ही नहीं पा रहे थे। इस असंतोष के तीन प्रधान कारण हैं। पहला, लेखकों पर
शीतयुद्धीय राजनीति के तहत समाजवादी विचारों का प्रभाव और दूसरा लोकतंत्र के
अनुरूप निजी संसार को रूपान्तरित करने में असमर्थता,तीसरा ,शार्टकट में हासिल करने
का नजरिया। लोकतंत्र में कोई चीज शार्टकट से नहीं मिलती। लोकतंत्र शार्टकट नहीं है
बल्कि एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में यदि आप अधीर हो जाएंगे तो गहरी
निराशा,कुण्ठा,पराजयबोध आदि की भावना पैदा होगी। साठोत्तरी युवालेखकों में ये
तीनों लक्षण मिलते हैं।
साठोत्तरी दौर के युवालेखन में
नगण्यताबोध खूब है। नामवर सिंह ने लिखा है,
" नगण्यता का यह बोध युवा-लेखन के संदर्भ को
देखते हुए बेमेल नहीं लगता। यह तथ्य है कि युवा पीढ़ी को न तो आजादी की लड़ाई में
हिस्सा लेने का मौका मिला और न स्वाधीन भारत के निर्माण में योग देने की सुविधा ही
मिली। अतीत से बाहर वर्तमान से बाहर और भविष्य तो अनिश्चित होने के कारण यों भी
बाहर है। इस प्रकार युवा पीढ़ी इतिहास से 'बाहर' रही।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ, भीतर पर भर दिया गया हूँ -निराला की यह
पंक्ति जैसे आज के युवक की ओर से ही कही गई है। बाहर कर दिए जाने के कारण ही वह
भीतर से भर दिया गया है। यही नहीं, बल्कि वह इतिहास के बाहर रहकर ही
इतिहास में हिस्सा भी ले रहा है। इतिहास में वह बाहर से शरीक है। नितांत 'बाहरी'
होने की यह मनःस्थिति युवा-लेखन के हर स्तर पर सक्रिय दिखाई पड़ती है।
अपने-आपको 'फालतू पुर्जा' और बाकी
साथियों को भी एक ही भाग के फालतू पुर्जों का ढेर समझना इसी बोध का सूचक है। जो 'अंदर'
है और जो काम में लगे हैं उनकी नजर में यह स्थिति भले ही अजीब हो,
लेकिन जिस राष्ट्र के निर्माण कार्य में भाग लेने से समूची जनता को
बाहर रखा गया हो और जिसमें बेकार तो बेकार, राजकाज
की मशीन में काम से लगे पुर्जें भी किसी स्पष्ट उद्देश्य के अभाव में अपने-आपको
बेकार समझ रहे हों, यह मनःस्थिति अनपहचानी नहीं हो सकती।"
इस प्रसंग में पहली बात यह कि
लोकतंत्र में देश-निर्माण का जज्बा पैदा करने में शासकवर्ग को सफलता तब तक नहीं
मिलती जब तक वह शिक्षा की आधारभूत संरचनाएं तैयार न कर दे। साठोत्तरी दौर में जिस
चीज ने तकलीफ पैदा की है और पुराने पिछड़े मानसिक सोच को बनाए रखा, वह है फैक्ट्री
और उससे जुड़े तंत्र का विरोध। पंडित नेहरू ने आह्वान किया था नए भारत के लिए हमें
ज्यादा से ज्यादा इंजीनियर,कुशल कारीगर और पेशवर लोग चाहिए। उनकी नजर तकनीकी
प्रगति पर थी। मुश्किल यहां पर है कि तकनीकी प्रगति का अर्थ हमने वैज्ञानिक प्रगति
लगा लिया। बल्कि होता यह है कि तकनीकी प्रगति ,वैज्ञानिक प्रगति का प्रतिवाद करती
है। नेहरूयुग में जो शिक्षातंत्र खड़ा किया गया उसका लक्ष्य था बुर्जुआ सामाजिक
प्रतिस्पर्धा के लिए जुझारू व्यक्ति तैयार करना। मसलन् जब एक बच्चे से पूछा गया कि
आप पढ़ते क्यों हैं तो उसका जबाव होता है कि "मैं विश्वविद्यालय में दाखिला
ले सकूँ", "विश्वविद्यालय में दाखिला किसलिए ?","ताकि आवश्यक
पद पा सकूँ। " यानी शिक्षा को आसानी से पद पाने में मदद करनी चाहिए।यानी
व्यक्ति इस या उस पद को पाने के लिए प्रयास करता रहता है। पद पाने के लिए शिक्षा की उपाधियों के तमगे हम अपने सीने पर
लगाए घूमते रहते हैं. यह एक तरह से नागरिकचेतना से उलट चेतना है। भारत में
शासकवर्ग ने एक ओर उपाधियों और पदों की भूख पैदा की तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति का
निर्माण किया जो नागरिकचेतना से शून्य है। इस प्रक्रिया में लोकतंत्र तो फला-फूला
लेकिन बगैर लोकतांत्रिक नागरिकचेतना के।
नामवर सिंह ने सही लिखा है ,"
नगण्यता के इस बोध ने जागरूक युवक लेखक को नगण्य-से-नगण्य वस्तु और व्यक्ति को देख
सकने की क्षमता दी है। यदि बारीक-से-बारीक ब्यौरे की दृष्टि से युवा लेखन समृद्धतर
है तो इसी क्षमता के कारण। इसे यथार्थ-चित्रण और वस्तु-अंकन की दिशा में विकास कहा
जाएगा। इस लेखन में गली-कूचे, खेत-खलिहान के मामूली आदमी अपनी सारी
नगण्यता के साथ सजीव रूप में जिस प्रकार आए हैं वह इसी दृष्टि का परिणाम है। वैसे,
ये प्रतिमाएँ पिछले प्रगतिशील दौर में भी दिखाई पड़ी थीं किन्तु इनके
निर्माण में प्रायः 'दृष्टि' से
ज्यादा 'कोण' उभर जाता था। "
"पहले के लेखक जहाँ सत्य की तलाश में सतह पर
तैरने वाली वस्तुओं और घटनाओं को पार करके तल में डुबकी लगाते थे, युवा-लेखक
तथाकथित सतही वस्तुओं और घटनाओं को ही सत्य की व्यंजकता में समर्थ मानते हैं।
पूर्ववर्ती लेखकों के मानस में वेदान्त का मायावाद कुछ इस तरह बद्धमूल था कि उनके
लिए 'तत्व तल से ही निकलता' था तथा सोनेवाली मछली निस्तल जल में ही
रहती थी' और प्रयोग का 'मोती' लाने के
लिए गोताखोर पनडुब्बी होने की आवश्यकता महसूस होती थी। इसके विपरीत युवा लेखक सतह
पर सुलभ वस्तुओं को ही सत्य का वाचक मानता है और इस दृष्टि से युवा लेखन 'सुपरफिशलिटी'
या 'सतहीपन' का
सार्थक साहित्य है। कहने वाले इस आधार पर इसे एकदम सतही और 'सुपरफिशल'
भी कह सकते हैं और ऐसी व्याख्या के लिए रोक कौन सकता है।"
"नगण्यता-बोध
का प्रभाव युवा-लेखन की भाषा पर भी देखा जा सकता है। अनेक कृतियों में नगण्य -से
-नगण्य शब्दों से सारी रचना का विधान किया गया है कभी-कभी शब्दों की उस नगण्यता को
'कृत्रिमता' की हद तक भी पहुँचा दिया जाता है -एक
विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए। यह प्रवृत्ति कविता और कहानी दोनों
क्षेत्रों में देखी जा सकती है। इसके साथ ही प्रभामंडित बड़े शब्दों से परहेज भी
साफ है। निश्चय ही सर्वत्र ऐसा नहीं हो सका है, लेकिन
जहाँ ऐसा हुआ है वहाँ नगण्य शब्दों के जरिए भी ऐसे भयावह वातावरण की सृष्टि कर दी
गई है जो बड़े-बड़े शब्दों के भी वश से बाहर है। छोटे-से-छोटे शब्द द्वारा
बड़े-से-बड़ा विस्फोटक प्रभाव उत्पन्न करके युवा-लेखकों ने दिखला दिया कि साहित्य के
अंदर भी परमाणु युग आ गया। कहते हैं कि युवा-लेखकों ने शब्द और अर्थ का संबंध तोड़
दिया। हुआ यह कि जिंदगी में जिन शब्दों का संबंध अपने अर्थ से टूट गया था और फिर
भी उनके जुड़े होने का ढोंग किया जाता था, उस ढोंग को इन
लेखकों ने तोड़ दिया। उन्होंने कुछ पूर्ववर्ती लेखकों की तरह शब्द में नए अर्थ भरने
के नाम पर मुलम्मा चढ़ाने का काम नहीं किया। इसी से भाषा में यथातथ्यता की भी
प्रवृत्ति बढ़ी है, यहाँ तक कि तथ्य ही भाषा बन गया।"
साठोत्तरी लेखकों में सेक्स एक प्रमुख विषय है।
नामवरजी ने सेक्स के चित्रण को लेखकों के इतिहास से पलायन और आदिम मनोभाव से जोड़ा
है। लिखा है - "अपने
इतिहास से बाहर रहने के कारण ही कुछ युवा-लेखकों में इतिहास से एकदम बाहर चले जाने
की आकांक्षा दिखाई पड़ती है। संपूर्ण पंरपरा को एकदम नकार देने के मूल में यही
आकांक्षा है। उधर भविष्य का दरवाजा पहले ही से बंद है, इसीलिए
इतिहास से बाहर जाने की चेष्टा अदबदाकर उन्हें 'आदिमपन'
में ला छोड़ती है। जब इतिहास एक व्यर्थ का भार है और सभ्यता एक अभिशाप,
तो आदिम अवस्था ही काम्य बच रहती है। इस आदिम मनोदशा में सारा संसार
जंगल मामूल होता है और सारे आदमी पशु। कवि का मन ''चिड़ियों का
व्याकरण'' सीखने के लिए बेचैन हो उठता है। इसी मनोदशा का एक रूप है ''अपनी
जड़ों की खोज'', जिसका संकेत 'आरंभ'-२
के इस उ(रण में देखा जा सकता है ''आज इस वक्त की कविता अपनी जड़ों की खोज
की बेचैन कविता है। '' इस दृष्टि से युवा-लेखन को 'मूलगामी'
कहा जा सकता है। शायद हर नई शुरुआत के लिए एक बार जड़ों में जाने की
जरूरत पड़ती है। इतिहास की अभीष्ट व्याख्या करने के लिए मार्क्स ने भी इतिहास से
बाहर छलांग लगाई थी और प्रागैतिहासिक साम्यवादी समाज के मूल तत्वों की खोज की,
इतिहास के बाहर एक बार अतीत की दिशा में तो दूसरी बार भविष्य की दिशा
में किन्तु उनके पाँव बराबर इतिहास के अंदर वर्तमान की ठोस जमीन पर टिके रहे। 'आदिमपन'
की दिशा में युवा-लेखन का मूलगामी प्रयास भी बहुत-कुछ वर्तमान का ही
सृजनात्मक रूपांतर है और इससे सृजन के ध्रातल पर निश्चय ही नई संभावनाएँ व्यक्त
हुई हैं।"
साठोत्तरी कवि की सेक्स
अभिव्यक्तियां ,सेक्सुअल अंग-प्रत्यंगों का अभिव्यक्ति के उपकरण के रूप में
इस्तेमाल विभिन्न किस्म की व्याख्याओं की संभावनाएं पैदा करता है। इस प्रसंग में पहली
बात कि यह सेक्स और कामुक अंगों और क्रीडाओं की ओर हिन्दी का लेखक पहलीबार नहीं आया
बल्कि पहले भी मध्यकाल में हिन्दी और संस्कृत में इसका विषय के रूप में खूब प्रयोग
मिलता है।
सेक्स का सर्जना में
सार्वजनिक प्रयोग एक ओर अवचेतन को अभिव्यक्त करता है। तो दूसरी ओर सामाजिक जीवन
में ऐहिकतामूलक नजरिए को विस्तार देता है। इसे आज की भाषा में धर्मनिरपेक्ष
नजरिया कहते हैं। मध्यकालीन श्रृंगार
साहित्य की इसी ऐहिकतामूलक भूमिका की ओर आचार्य हजारीपप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान
खींचा है। सेक्स की ओर जाने का अर्थ है आदिम मन या आदिम गुफाओं में जाना नहीं है
और न यह इतिहास से पलायन है। सेक्स की थीम रवीन्द्रनाथ टैगोर की सबसे प्रिय थीम
थी। उन्होंने 60साल की उम्र के बाद कई हजार न्यूड चित्र बनाए और स्त्री के मांसल
शरीर का सबसे सुंदर कलात्मक चित्रण किया।
सेक्स पर लिखने का अर्थ है स्त्री के शरीर को
सार्वजनिक बहस के केन्द्र में लाना ,उस पर पड़े हुए सामंती पर्दों को गिराना।
सेक्स के प्रति अकुण्ठित भावबोध पैदा करना। सेक्स पर खुली बहस लोकतांत्रिक
मनोभावों के पुष्ट होने का संकेत है। यह लोकतंत्र का बाइ-प्रोडक्ट है। सेक्स के
चित्रण के बहाने युवालेखकों ने कविताओं में सेक्स का प्रसार नहीं किया। कविता या
कलाओं में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती।
सेक्स जब कविता या नाटक या चित्रकला में अपने को व्यक्त करता है तो वह सेक्स नहीं रह जाता।
सेक्स का रूपान्तरण हो जाता है। नामवर सिंह की मुश्किल यह है कि सेक्स को एक विषय
के रूप में यांत्रिकतौर पर देखते हैं। सेक्स के सर्जना के क्षेत्र में आने का एक
अर्थ यह भी है कि परिवार,शादी,शारीरिक संबंध आदि को लेकर सामाजिक संस्कारों में बदलाव आ रहा है।
सेक्स की थीम का प्रवेश सामाजिक एटीट्यूट में आ रहे बदलाव की सूचना है। यह इतिहास
से पलायन नहीं है। बल्कि सेक्स के प्रति धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भावबोध की
अभिव्यक्ति है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह काम पेंटिंग के जरिए किया,साठोत्तरी
कवियों ने कविता के जरिए किया।
सेक्स का चित्रण प्रकारान्तर से कंजरवेटिव राजनीति को सीधे चुनौती
देता है। उल्लेखनीय है सेक्स का चित्रण करने वाले अधिकांश युवालेखक धर्मनिरपेक्षता
में आस्था रखने वाले थे।
नामवर सिंह का मानना है ," सेक्स-चित्रण
में अतिरिक्त रुचि इसी आदिम मनोदशा का दूसरा परिणाम है। 'एलिएनेशन'
अथवा निर्वासन के परिणामों का वर्णन करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि ''निर्वासन
की स्थिति में जब तमाम सामाजिक और मानवीय संबंध व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं तो जो
पाशव है वही मानवीय हो जाता है और मानवीय पाशव। इसलिए संभोग की शारीरिक
क्रिया-जैसा 'पाशव' कर्म एकमात्र
ऐसा कर्म बच रहता है जिसमें निर्वासित व्यक्ति अपने-आपको 'मानव'
समझता है, अगर्चे स्तर गिरकर पशुता तक पहुँच जाता है।''
युवा-लेखन में जहाँ नग्न सेक्स-चित्रण दिखाई पड़ता है, उसका
रहस्य यही है।"
इसका एक अन्य पहलू भी है जिस पर ध्यान देने
की जरूरत है। साठोत्तरी लेखक बड़े पैमाने पर सामाजिक-पारिवारिक संबंधों में आ रहे
तनाव और टूटन को दर्ज करते हैं। वे सेक्स के चित्रण को आदिम जिज्ञासा या अलगाव के
कारण नहीं उठाते। यदि ऐसा ही है तो साठोत्तरी लेखक को जितना सामाजिक अलगाव झेलना
पड़ रहा था आज तो उससे कई गुना ज्यादा सामाजिक
अलगाव है ,जो लेखक से लेकर नागरिक सभी झेल रहे हैं। लेकिन सेक्सुअल विषयों पर कोई
भी कविता नहीं लिख रहा और न कहानी या उपन्यास में
सेक्स की बाढ़ आई है।
सेक्स के विषय का सामाजिक अलगाव से
कम और लोकतंत्र के विस्तार और सेक्स के ऊपर से पर्दा हटाने के सामंतवाद विरोधी भावबोध
से ज्यादा संबंध है। जिस समाज में लोकतंत्र नए परिवेश को बनाने का प्रयास करेगा
वहां पर सेक्स एक प्रमुख थीम बनेगा। लोकतंत्र में नए एटीट्यूट और नए कम्युनिकेशन
के रूपों का जब भी प्रवेश होगा सेक्स प्रधान थीम बनेगा। कम्युनिकेशन की छटटपटाहट
और बेचैनी या अवरोध ,सेक्स की थीम की ओर ठेलते हैं, फलतः नई कलात्मक ऊर्जा की बाढ़ आ जाती है।
हिन्दी में सेक्सुअल औपनिवेशिकता को तोड़ने
में साठोत्तरी लेखकों की बड़ी भूमिका है। कायदे से यह काम काफी पहले होना था लेकिन
,खैर,बाद में हुआ जो सही था।वे अपनी रचनाओं के माध्यम से कामुक औपनिवेशिकता,
दमनात्मक भावबोध और सीमित कामुक प्राथमिकताओं के प्रचलित टेबुओं को नष्ट करते हैं।
यह सारी प्रक्रिया इतिहास से भागे हुए आदिम मनोभाव की देन नहीं है बल्कि लेखक की
टेबुओं से लड़ने की मनोकांक्षा की अभिव्यक्ति है। वह सेक्स की थीम पर रचनाएं लिखकर
शारीरिक औपनिवेशिकता से मुक्ति चाहता है। वे यह भी संदेश दे रहे हैं कि कामुकता
नियंत्रण की चीज नहीं है।
साठोत्तरी सेक्सचित्रण को नैतिकता के आधार पर भी नहीं देखा जाना चाहिए।
सेक्स में नैतिक -अनैतिक, श्लील-अश्लील की दीवारों को इन लेखकों ने नष्ट किया है।
वे हिन्दी कविता में सेक्सक्रांति की पहली पीढ़ी के नायक हैं। वे अवसाद ,हताशा या
अलगाव के कारण सेक्स की ओर मुखातिब नहीं हुए बल्कि सेक्सचित्रण के माध्यम से बताना
चाहते हैं कि सेक्स उनका लोकतांत्रिक हक है और यह सार्वजनिक विवाद-विमर्श का विषय
है।
पहले सेक्स अंदर की चीज था। सार्वजनिक बहस का विषय नहीं था। यह समझ कामुक
गुलामी के तानेबाने से जुड़ी है। साठोत्तरी लेखक एक ही झटके में इस ताने-बाने को
तोड़ देते हैं। एक अन्य चीज जिसे नामवर सिंह से लेकर राजकमल चौधरी तक नोटिस ही
नहीं लेते, वह यह कि कविता में सेक्स का मतलब यांत्रिकतौर सेक्स का रूपायन नहीं
है। कविता में सेक्स की अभिव्यक्ति सेक्स को रूपान्तरित करती है।
कला में सेक्स का रूपायन सेक्स की नहीं ,स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है। वहां
सेक्स का स्वतंत्रता में रूपान्तरण होता है। नियंत्रणों का निषेध है। सेक्स की
खुली अभिव्यक्ति को यांत्रिक रूप में देखेंगे तो गलत निष्कर्ष निकलने का खतरा है।
ऐसा ही एक पत्र नामवरसिंह ने राजकमल चौधरी का अपने लेख में उद्धृत किया है।
नामवर सिंह ने लिखा
है "खुले सेक्स-चित्रण के लिए 'बदनाम'
राजकमल चौधरी ने इसी प्रकार के एक अन्य युवतर लेखक श्रीराम शुक्ल को
१.७.६६ के पत्र में लिखा था ''स्त्री- शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद वस्तु
है-लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। कविता में स्त्री-शरीर
अन्य सभी विषयों की तरह मात्र एक विषय है-कविता का कारण या कविता का प्रतिफल नहीं,
मैं ऐसा ही मानता हूँ।... अब कविता के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक
और सामाजिक मान्यताएँ अधिक आवश्यक विषय हैं। स्त्री-शरीर को राजनीतिज्ञों, सेठों,
बनियों और इनके प्रचारकों ने अपना हथियार बनाया है-हम लोगों को अपना
क्रीतदास बनाए रखने के लिए। बेहतर हो, हम पत्रिकाओं के
कवर पर छपी हुई, कैलेंडरों पर छपी हुई अधनंगी स्त्रियों और अपने
पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर के मालिकों के लिए हमारा ईमान, हमारा
जेहन, हमारी ताकत खरीदकर हमें नपुंसक बनानेवाली अधनंगी स्त्रियों को अब
अपने साहित्य में उसी प्रकार प्रश्रय नहीं दें, न
आत्मरति के लिए ओर न पर-पीड़ा के लिए! मैं श्लील-अश्लील नहीं मानता हूँ, लेकिन
हम कवि हैं, हमें न तो नपुंसक, और न
स्त्री-अंगों का वकील बनना चाहिए।'' (युयुत्सा, अगस्त'
६७, पृष्ठ १८७-८८)"
नामवर सिंह का यह भी मानना है ,"वैसे, सेक्स-नैतिकता
के मामले में सामान्यतः आज के युवा लेखक पूर्ववर्ती पीढ़ियों की तुलना में अधिक
वर्जना-मुक्त हैं। युवा -लेखकों के इस दावे में काफी सच्चाई है कि उनमें अपने
पूर्वजों का-सा ढोंग नहीं है। औरों ने जो किया लेकिन कहाँ नहीं, उसे
स्वीकार करने का साहस आज के युवक में है, क्योंकि वह ढोंग
को अनैतिक कार्य-विशेष से भी अधिक अनैतिक मानता है। अतिरिक्त साहसिकता और
आत्म-प्रदर्शन के बावजूद यह मानसिक खुलापन कुल मिलाकर साहित्य के लिए
स्वास्थ्यप्रद है।"
सवाल उठता है साठोत्तरी कविता में तथाकथित रेडीकल भावबोध, सेक्सचित्रण के
साथ या उसके बाद ही क्यों आया ?
पहले कभी यह रेडीकल भावबोध व्यक्त क्यों नहीं हुआ। सेक्सचित्रण की सामान्य विशेषता
है जिसे नामवरसिंह पुराने लेखकों की तुलना
में "स्वास्थ्यप्रद" मानते हैं। यह "स्वास्थ्यप्रद" मनोदशा निर्मित करने और बड़े सामाजिक-राजनीतिक
सवालों की ओर ठेलने में सेक्सचित्रण की बड़ी भूमिका रही है।
सेक्स बुरी और खतरनाक चीज नहीं है। सेक्स पर
लिखना और बात करना भी बुरा और खतरनाक नहीं है। सेक्स हिन्दी में टेबू था और उसे
तोड़ने का अर्थ यह भी था कि स्त्री शरीर को सार्वजनिक बहस के केन्द्र में लाया
जाए। स्त्री शरीर को केन्द्र में लाए बिना लोकतंत्र के बड़े कैनवास का विकास नहीं
होता। कामुक औपनिवेशिकता वस्तुतःराजनीतिक औपनिवेशिकता का अंग है। 15 अगस्त 1947 को
राजनीतिक औपनिवेशिकता से मुक्ति मिली लेकिन कामुक औपनिवेशिकता से साठोत्तरी
साहित्य ने मुक्ति दिलाई।इस अर्थ में साठोत्तरी साहित्य दूसरी आजादी का साहित्य
है।
एक
अन्य पहलू ध्यान में रखें, स्त्री को चित्रित किए बिना महान रचनाओं का जन्म नहीं
होता। कालिदास की कामुक कल्पनाएं और संभोग का चित्रण अभिज्ञान शाकुंतलम् और
कुमारसंभव जैसी महान रचनाओं को जन्म देता है। संभोग के चित्रण के बिना कुमारसंभव
लिखा नहीं जा सकता। शरीर और कामाग्नि की पीड़ा ने बिंदास वर्णन के बिना अभिज्ञान
शाकुन्तम् में शकुन्तला का सौन्दर्य चरमोत्कर्ष पर नहीं पहुँचता।
साठोत्तरी युवालेखक सेक्स लेखक नहीं है ,बल्कि प्रतिवादी लेखक है, यह ऐसा
लेखक है जिसके अंदर लोकतंत्र को लेकर विभ्रम है,जो लोकतंत्र को संशय की नजर से देखता है। लेकिन यह लेखक इस
दौर में पैदा हुए राष्ट्रवाद, भाषायी उन्माद,अंधक्षेत्रीयतावाद,हिन्दीवाद से
तकरीबन मुक्त है। वह देश की बृहत्तर समस्याओं को उठाता है लेकिन उन्माद के सवालों
से दूरी रखता है। उसकी भाषा और मुहावरे में एकदम ताजगी है और लोकतांत्रिक बेचैनी
है।साठोत्तरी कवियों की जिन कविताओं में पूंजीवाद और लोकतंत्र विरोध की अनुगूंज
सुनाई देती है वे कविताएं मूलतः लोकतांत्त्रिक भावबोध और स्वस्थ बुर्जुआ परिवेश की मांग करने वाली
कविताएं हैं।
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