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5.5.12

परिवर्तन पर पछतावा





शंकर जालान






एक साल जाते न जाते पश्चिम बंगाल की जनता को राज्य में ३४ साल बाद हुए सत्ता परिवर्तन में पछतावा होने लगा है। राज्य की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की कार्य पद्धति ज्यादातर लोगो को रास नहीं आ रही है। केंद्र पर दवाब डालने का मामला हो या विपक्ष को फटकारने का, ममता सबसे आगे हैं। नि-संदेह दुनिया के सौ चुनिंदा लोगों में ममता का नाम शामिल होने से वे खुद पर फूली नहीं समा रहीं हो, लेकिन हकीकत यह है ममता बनर्जी आजकल गलत कारणों से चर्चा में हैं। इन दिनों ममता अपनी न समझ आ पाने वाली कार्रवाइयों के कारण आलोचनाओं का शिकार हो रही हैं, जैसे कि उनको बुरे तरीके से प्रदॢशत करते एक कार्टून के कारण एक शिक्षाविद् को गिरफ्तार करना या अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से किसी माकपा परिवार में शादी न करने के लिए कहना या शहर में नीला रंग करना या फिर खुद का न्यूज चैनल व समाचार-पत्र निकलाने की बात हो। हर रोज एक नई चीज सामने लाना उनकी असहनशीलता को दर्शाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ महीनों से राज्य में परिवर्तन का उत्साह मंद पड़ गया है या फिर लोगों को परिवर्तन पर पछतावा होने लगा है।
बीते साल मई में विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की जबरदस्त जीत के बाद ममता एक चमत्कारिक व्यक्ति बन सामने आईं थीं। एक ऐसी नेता के लिए, जिसने जबरदस्त सौहार्द तथा विशाल बहुमत के साथ 34 वर्षों बाद साम्यवादियों से छुटकारा पाकर इतिहास रचा है, लेकिन उनके कारमानों ने  आलोचकों को जल्द मुंह खोलने का मौका दे दिया।
एक समय था जब माकपा मीडिया पर ममता के प्रति पक्षपाती होने व उन्हें विशेष प्रचार देने का आरोप लगाती थी। आज ममता दीवार की दूसरी तरफ हैं। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वह मीडिया के साथ-साथ लोगों की निगाह में हैं जिन्होंने उन्हें इतना बड़ा जनादेश दिया था। जनता ने उन्हें वोट दिया, वह आशा कर रही थी कि उनका प्रशासन खुला तथा भविष्यपरक होगा। इसकी बजाय उन्होंने 9 मंत्रालय संभाल कर सभी शक्तियां अपने में केन्द्रित कर ली हैं जिससे निर्णय लेना और भी कठिन हो गया है क्योंकि हर बात का निर्णय उन्हीं को लेना होता है।
आखिर क्यों ममता का मीडिया से इतनी जल्दी मोह भंग हो गया। क्यों ‘हनीमून’ समाप्त होने से पहले ही मीडिया की रसिया ममता बनर्जी को पुष्पगुच्छों की बजाय आलोचना का सामना करना पड़ रहा है? ऐसा अत्यधिक आशाओं तथा बहुत कम कार्य के कारण है। या फिर यह इसलिए तो नहीं कि अनुभवहीन मुख्यमंत्री परिणाम देने में अक्षम हैं? या फिर इसलिए तो नहीं कि अपना समर्थन करने वाले लोगों को पक्के तौर पर अपने पक्ष में मान लिया है?
सबसे पहली बात यह है मुख्यमंत्री अपनी पहले वाली झगड़ालू नेता की भूमिका से बाहर नहीं निकली पाई हैं। इस प्रवृत्ति ने तब काम किया, जब वह विपक्ष में थी, लेकिन यह तब काम नहीं आएगी जब वह शासक हैं। उन्हें अवश्य पता होना चाहिए कि इन दोनों भिन्न-भिन्न भूमिकाओं के लिए उन्हें अलग-अलग नीतियां अपनानी होंगी। एक अखबार के मुताबिक ममता के आलोचकों को भय है कि ममता ने ‘एलिस इन वंडरलैंड’ में ‘रैड क्वीन’ की टोपी पहन ली है जो यह कहती-फिरती थी कि जिस किसी को भी वह पसंद नहीं करती उसका सिर कलम कर दो।
दूसरे, उन्हें निर्णय लेने की शक्ति का विकेन्द्रीयकरण करना होगा ताकि निर्णय तेजी से लिए जा सकें। उन्होंने एक शानदार टीम चुनी है लेकिन इस वक्त सब कुछ इस बात की प्रतीक्षा में है कि उनका इरादा क्या बनता है? उन्हें कुछ मंत्रालय भी छोडऩे होंगे ताकि बड़े नीति मामलों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए समय निकाल सकें।
ममता को यह एहसास होना चाहिए कि यह लोकतंत्र है, जिसने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है और लोगों के पास अभिव्यक्ति का अधिकार तथा कार्रवाई करने की स्वतंत्रता है। यदि इन्हें दबाया गया तो परिणाम विनाशकारी होंगे। उन्हें गलत तरीके से दर्शाने वाले एक कार्टून के लिए प्रोफैसर को गिरफ्तार करने के हालिया मामले के कारण न केवल हर कहीं उनके खिलाफ प्रदर्शनकारी उठ खड़े हुए हैं बल्कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी, जिसने चुनावों से पूर्व उनका समर्थन किया था। जितनी उनकी आलोचना होती है, उतनी ही वह असहनशील बन जाती हैं।
ममता ने अभी कार्यकाल की बीस फीसद भी पूरा नहीं किया है। डर है कि यदि आलोचना ऐसे ही जारी रही तो क्या होगा? अगले वर्ष होने वाले पंचायती चुनावों में उनका कड़ा परीक्षण होगा। माकपा की हालिया कांग्रेस में अभी ममता का सामना करने की बजाय पार्टी के पुननिर्माण का निर्णय लिया गया। यदि वास्तव में माकपा ऐसा करती है तो ममता के सामने गंभीर चुनौती होगी। कामरेडों द्वारा विपरीत प्रतिक्रिया का लाभ उठाए जाने की संभावना है।
यह सच है कि ममता एक बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आई हैं। इसके साथ ही उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी भी मिली है। यदि अत्यधिक नियंत्रण बरता गया तो अपने लोगों को साथ बनाए रखना शीघ्र ही उनके लिए समस्या बन जाएगी नि:संदेह उनकी पार्टी के लोगों को यह एहसास है कि वे उनकी निजी लोकप्रियता के कारण जीते हैं लेकिन उन्हें अत्यधिक नियंत्रण के साथ दीवार की ओर नहीं धकेला जाना चाहिए जो वह उन पर इस्तेमाल कर रही हैं।
ममता को अपने लोगों को साथ बनाए व उनको खुश रखने की युक्ति सीखनी होगी। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी पहले रेल बजट पर उनका विरोध करके अपनी हिम्मत दिखा चुके हैं जिसके लिए उन्हें अपना पद खोना पड़ा। अब एक अन्य विद्रोही सासंद कबीर सुमन कार्टून मामले पर अपनी कविताओं के माध्यम से उनका मखौल उड़ा रहे हैं।
इस सबका अर्थ यह नहीं कि इन कुछ महीनों के दौरान ममता ने कुछ भी नहीं किया है। लोगों की जुबान पर माओवादियों से निपटने में किए गए उनके प्रयासों का जिक्र है। उन्होंने केन्द्रीय बलों को हमेशा सक्रिय रखा है और माओवादी क्षेत्रों में विकास तथा नौकरियों के लिए बहुत धन उपलब्ध करवाया है। यहां तक कि उनके कट्टर आलोचक भी इस प्रयास के लिए उनको श्रेय देते नजर आए।
ममता का अभी भी अपना एक गुट है और कुछ गैर-कांग्रेस मुख्यमंत्रियों के साथ उनका अच्छा तालमेल है और जब कभी भी वह केन्द्र का सामना करना चाहेंगी, वे आगे बढ़ कर उनका साथ दे सकते हैं।
जानकार मानते हैं कि केन्द्र को जब तक उनके समर्थन की जरूरत है, वह उनके नखरे उठाता रहेगा। ममता के अभी भी समर्थक हैं जो उनकी तरफ देखते हैं और ममता को सुनिश्चित करना होगा कि उनका जल्दी ही उनसे मोहभंग न हो जाए। आगामी लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें और भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है विधानसभा चुनावों के दौरान कमाई नेक-नीयति को न खोना।

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