समाचार-पत्र के प्रथम पृष्ठ की सूचनाओं पर यथासंभव प्रतिक्रिया करने के पश्चात् जैसे ही दूसरे पृष्ठ की ओर रूख किया तो झटके के साथ अखबार बंद हो गया और मुँह से निकला...............आ..........ऊ.........च। यह आऊच तो सामने बैठे श्रीमान् का ध्यान उस पृष्ठ से हटाने के लिए था जिसे खोलते ही पाठक शर्मींदा हो जाये। श्रीमान् तो मान बैठे कि हमें हो शारीरिक क्षति हुई है, पर कैसे बतायंे, यह तो मानसिक आघात था। ऐसे झटके हर शरीफ़ को आजकल के अख़बार खोलते ही लगते हैं। हर दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर ऐसी तस्वीरें चस्पा की जाती हैं, जिन्हंे देखकर आँखें शर्म से झूक जायें। टी0वी0, इंटरनेट पर वही तस्वीरें अगर बच्चे देखें तो निश्चित रूप से अश्लील तस्वीरें देखने के जुर्म में माता-पिता से मार खायेंगे। इसी परेशानी का हल शायद हमारे आधुनिक कहे जाने वाले समाचार-पत्रों ने निकाल दिया और माता-पिता व बच्चों के लिए सार्वजनिक रूप से गर्म मसाला परोस दिया। देखो और लज्जा त्यागो। हुआ भी यही कुछ दिनों तक तो हमने अखबार के पन्ने संभल-संभल कर खोलना शुरू किया, पर आखिर कब तक यह सब किया जा सकता था? बहरहाल हम ही बेशर्म हो गये। बच्चों के सम्मुख तो यह शर्म खुल गई है बस कुछ चिर-परिचित ऐसे हैं जिनके के लिए अभी कुछ और अभ्यास की आवश्यकता है। कुछ अख़बारों ने तो इसे परम्परा बना दिया है। मानो सांस्कृतिक प्रतीक हो गई हैं ये तस्वीरें। अखबार खोला और पाश्चात्य संस्कृति की दर्शन कराती नग्न देवियाँ निर्लज मुद्राओं में आपके सम्मुख प्रस्तुत हो गई। स्थिति यह है कि हमारे समाचार-पत्रों के ‘पाठक कम दर्शक ज्यादा’ हो गये हैं। समाचार-पत्रों को हमने अपनी नेक सलाह बिलकुल मुफ्त देनी चाही। पर यही गलती हो गई। बाजार के चार नये प्रत्यय समझकर हम अपना सा मुँह लेकर लौटे। यह मार्केटिंग का युग है। यहाँ वही छापा जाता है जो बिकता है और इसमें हमारा क्या दोष आप लोग पढ़ना ही....... मतलब देखना ही यह चाहते हो। आप देखना बंद कर दो, हम छापना बंद कर देंगे। बात तो कुछ हद तक सही है। पत्रकारिता दुकानदारी जो हो गई है। पर उलझन यह है कि कोठे पर बैठी तवायफ कहती है कि मैं पेट के लिए ज़िस्म बेचती हूँ, खरीदने वाले हैं इसलिए बिकती हूँ। मेरी मजबूरी ने मुझे कुलटा बना दिया पर वो शरीफ़ कैसे जिनके शौक ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया? तो क्या वास्तव में हम पाठक समाचार-पत्रों को यह दिशा प्रदान कर रहे हैं? या समाचार-पत्रों ने नग्नता रूपी चरस की लत से पाठकों को दर्शक बना दिया! निश्चित परिणाम निकालना अत्यन्त कठिन है परन्तु एक बात स्पष्ट है कि दोनांे ही कारण सामाजिक विकृति को बढ़वा अवश्य दे रहे हैं।
10.5.12
लील गये दर्शक, ‘पाठक’
समाचार-पत्र के प्रथम पृष्ठ की सूचनाओं पर यथासंभव प्रतिक्रिया करने के पश्चात् जैसे ही दूसरे पृष्ठ की ओर रूख किया तो झटके के साथ अखबार बंद हो गया और मुँह से निकला...............आ..........ऊ.........च। यह आऊच तो सामने बैठे श्रीमान् का ध्यान उस पृष्ठ से हटाने के लिए था जिसे खोलते ही पाठक शर्मींदा हो जाये। श्रीमान् तो मान बैठे कि हमें हो शारीरिक क्षति हुई है, पर कैसे बतायंे, यह तो मानसिक आघात था। ऐसे झटके हर शरीफ़ को आजकल के अख़बार खोलते ही लगते हैं। हर दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर ऐसी तस्वीरें चस्पा की जाती हैं, जिन्हंे देखकर आँखें शर्म से झूक जायें। टी0वी0, इंटरनेट पर वही तस्वीरें अगर बच्चे देखें तो निश्चित रूप से अश्लील तस्वीरें देखने के जुर्म में माता-पिता से मार खायेंगे। इसी परेशानी का हल शायद हमारे आधुनिक कहे जाने वाले समाचार-पत्रों ने निकाल दिया और माता-पिता व बच्चों के लिए सार्वजनिक रूप से गर्म मसाला परोस दिया। देखो और लज्जा त्यागो। हुआ भी यही कुछ दिनों तक तो हमने अखबार के पन्ने संभल-संभल कर खोलना शुरू किया, पर आखिर कब तक यह सब किया जा सकता था? बहरहाल हम ही बेशर्म हो गये। बच्चों के सम्मुख तो यह शर्म खुल गई है बस कुछ चिर-परिचित ऐसे हैं जिनके के लिए अभी कुछ और अभ्यास की आवश्यकता है। कुछ अख़बारों ने तो इसे परम्परा बना दिया है। मानो सांस्कृतिक प्रतीक हो गई हैं ये तस्वीरें। अखबार खोला और पाश्चात्य संस्कृति की दर्शन कराती नग्न देवियाँ निर्लज मुद्राओं में आपके सम्मुख प्रस्तुत हो गई। स्थिति यह है कि हमारे समाचार-पत्रों के ‘पाठक कम दर्शक ज्यादा’ हो गये हैं। समाचार-पत्रों को हमने अपनी नेक सलाह बिलकुल मुफ्त देनी चाही। पर यही गलती हो गई। बाजार के चार नये प्रत्यय समझकर हम अपना सा मुँह लेकर लौटे। यह मार्केटिंग का युग है। यहाँ वही छापा जाता है जो बिकता है और इसमें हमारा क्या दोष आप लोग पढ़ना ही....... मतलब देखना ही यह चाहते हो। आप देखना बंद कर दो, हम छापना बंद कर देंगे। बात तो कुछ हद तक सही है। पत्रकारिता दुकानदारी जो हो गई है। पर उलझन यह है कि कोठे पर बैठी तवायफ कहती है कि मैं पेट के लिए ज़िस्म बेचती हूँ, खरीदने वाले हैं इसलिए बिकती हूँ। मेरी मजबूरी ने मुझे कुलटा बना दिया पर वो शरीफ़ कैसे जिनके शौक ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया? तो क्या वास्तव में हम पाठक समाचार-पत्रों को यह दिशा प्रदान कर रहे हैं? या समाचार-पत्रों ने नग्नता रूपी चरस की लत से पाठकों को दर्शक बना दिया! निश्चित परिणाम निकालना अत्यन्त कठिन है परन्तु एक बात स्पष्ट है कि दोनांे ही कारण सामाजिक विकृति को बढ़वा अवश्य दे रहे हैं।
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