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2.8.12

अन्ना, जनलोकपाल और राजनीति !



भ्रष्टाचार के खिलाफ एक और लड़ाई का अधूरा अंत हो गया...हालांकि इस लड़ाई के नायक अन्ना हजारे कहते हैं कि राजनीति से गंदगी को हटाना है तो राजनीति में ही जाना होगा...या यूं उऩकी बात को समझ लें कि अच्छे लोगों को चुनने का विकल्प जनता के सामने लाना होगा...लेकिन अन्ना ये क्यों भूल गए कि जिस विकल्प की वे बात कर रहे हैं...उसे सामने लाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है...वो भी इतने कम समय में जब डेढ़ साल बाद देश में आम चुनाव होने हैं। माना वो इस चुनौती को पार पा भी लेते हैं तो उससे भी बड़ा सवाल ये है कि उस अलोकप्रिय विकल्प (उम्मीदवार) पर उस क्षेत्र की जनता क्यों भरोसा करेगी...क्यों उसे वोट देकर संसद भेजेगी। हां अन्ना की टीम के कुछ लोकप्रिय सदस्यों मसलन अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसौदिया, कुमार विश्वास आदि भले ही अपनी लोकप्रियता को भुना भी ले जाते हैं तो क्या गारंटी है कि बाकी के अलोकप्रिय विकल्प लोगों के लिए वाकई में एक बेहतर विकल्प बन पाएंगे। ऐसी कई और चुनौतियां...जैसे चुनाव के लिए पैसे का इंतजाम, ग्रामसभा से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक अपने ईमानदार जुझारू कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी करना आदि टीम अन्ना के सामने आएंगी अगर वे राजनीति में उतरने की बात को अमली जामा पहनाते हैं तो। खैर ये तो वो बातें है चुनौतियां हैं जो फिलहाल भविष्य के गर्भ में हैं...लेकिन सबसे बड़ा सवाल वर्तमान में ये है कि जंतर मंतर पर जनलोकपाल के न आने तक जान देने का दम भरने वाले अन्ना को आखिर ऐसी क्या आफत आन पड़ी कि बीच राह में आर पार की लड़ाई के आंदोलन से अन्ना को कदम पीछे खींचने पड़ गए। अन्ना के पैर पीछे खींचने से उनके समर्थकों के साथ ही भ्रष्टाचार के त्रस्त उन करोड़ों देशवासियों को भी झटका लगा है जिन्हें लगने लगा था कि अन्ना ही वो शख्स हैं जो भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए सरकार को जनलोकपाल लाने पर मजबूर कर सकते हैं। शायद आंदोलन के नौ दिन बाद भी सरकार की बेरूखी...जानबूझकर आंदोलन को नजरअंदाज करना और केजरीवाल, मनीष सिसौदिया और गोपाल राय की तबियत ज्यादा बिगड़ना भी इसकी बड़ी वजह हो सकता है...लेकिन आंदोलन से पहले टीम अन्ना ने हर स्थितियों पर मंथन कर कोई वैकल्पिक योजना तैयार की होती तो शायद ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होती। आंदोलन खत्म करने का अन्ना का ये कदम जहां उनके समर्थकों के साथ ही भ्रष्टाचार से त्रस्त हर उस देशवासी को हैरान और निराश करने वाला है...वहीं केन्द्र सरकार को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो। अन्ना के मंच से अनशन समाप्त करने की घोषणा करने के बाद कांग्रेस नेताओं को प्रतिक्रिया से इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि अनशन के खत्म होने का वे कितनी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। जंतर मंतर से शुरू हुई इस अधूरी लड़ाई को अन्ना दूसरे रूप(राजनीति) में जारी रखने की बात तो कर रहे हैं...लेकिन इस लड़ाई को उसके अंजाम तक पहुंचाना आसान तो बिल्कुल भी नजर नहीं आता। लड़ाई का ये दूसरा रूप कीचड़ का वो दलदल है जहां इंसान भले ही कितना भी कुशल खिलाड़ी क्यों न हो अपने आप को लाख कोशिशों के बाद भी घुटने तक दलदल में डूबने से नहीं बचा पाता...टीम अन्ना को तो ऐसी खिलाड़ियों को खोजने के साथ ही उन्हें खेलना भी सिखाना है...वो भी बहुत कम समय में...जबकि दूसरी तरफ उनके सामने दलदल में पहले से ही बड़े बड़े सूरमा ताल ठोक कर बैठे हैं।











दीपक तिवारी
deepaktiwari555@gmail.com

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