कितना तड़पी होगी वो! क्या वो इसका मतलब भी समझती होगी? मानसिक एवं शारीरिक रूप से शोषित होती यह बच्ची, जब माँ बनने के अर्थ को समझ आने की अवस्था में होगी, तब उस सुंदर अहसास से परे घृणित भाव से भरी होगी और घिरी होगी प्रश्नों के जंजाल में कि क्यों उसके माता-पिता ने ही उसके विश्वास को तार-तार किया? क्यों नहीं कर पाये वे उसकी रक्षा? क्यों ईश्वर उसकी किस्मत लिखते समय इतना निष्ठुर हो गया? कहाँ रहा नौ महीने ‘लड़कियों का रक्षक समाज’? क्या उसकी पीड़ा की चीख़ किसी के कानों में नहीं पड़ी? क्या इतने दिन किसी की दृष्टि उसके उभारों से प्रश्न न कर सकी? क्या किसी के मन में उसके लिए करूणा नहीं उमड़ी? यहाँ तक कि उसके अपने माँ-बाप के मन में भी नही! वह तेरह वर्ष की उम्र में एक बच्ची की माँ बन गई। अभी तो वह खुद माँ की गोद में सिर रख दुलार के हाथ की प्रतीक्षा कर रही थी कि स्वयं उसकी गोद से किलकारियों की आवाजें आने लगी! कौन है इसका जिम्मेदार? वे जो उसके संरक्षक हैं या वह जो अपने हसरतें पूरी कर चला गया? क्या एक बार भी उन बाल अंगों पर तरस नहीं आया उसे? अब क्या? क्या अब उस मासूम को उन हाथों की कठपुतली बनने के लिए छोड़ देना चाहिये? क्या उनके साथ उसका व उसकी बच्ची का भविष्य सुरक्षित है? क्या गारंटी है कि भविष्य में वह बच्ची व उसकी बच्ची उन संरक्षकों के लिए कमाई का साधन नहीं बनेगी? क्या आयेगा कोई उन दोनों की रक्षा के लिए? और इन सबके साथ-साथ एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न-चिन्हः आखि़र कब तक चलेंगी ये कहानियाँ? और कितनी लम्बी होगी यह कतार? ज़रा कचौटिये अपनी मृत भावनाओं को, शायद कोई हल निकल आये और बचपन की मीठी यादें ज़हरीले भाग्य से मुक्त हो जायें।
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