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मित्रों,मैं अपने बहुत पहले लिखे एक आलेख गरीबी जाति नहीं देखती जनाब
में इस विषय पर विस्तार से विचार कर चुका हूँ कि भारत में गरीबी
सर्वव्यापी है। अगर एक चमार गरीब है तो एक राजपूत भी गरीब है अर्थात् न तो
गरीबों की कोई खास जाति होती है और न ही गरीबी की ही।
मित्रों,पिछले दो दशकों से भारत में और बिहार में भी सरकारी नौकरियों में
50 % आरक्षण लागू है। अगर बैकलॉग हुआ तो नियुक्ति विशेष में आरक्षण इससे
ज्यादा भी हो सकता है। इतना ही नहीं आजकल अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी
संख्या में, बिहार में तो आधी से भी ज्यादा पर पिछड़े और दलित वर्गों के
उम्मीदवार ही काबिज हो जाते हैं। अब आप ही बताईए कि जो अवर्ण उम्मीदवार
सवर्ण उम्मीदवारों से भी ज्यादा मेधावी,योग्य और सक्षम हैं उनको आरक्षण की
आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों,बाद में बिहार सरकार ने
ग्राम-पंचायतों में भी अति-पिछड़ी और दलित जातियों को आरक्षण दे दिया जिससे
बहुत से पंचायतों में लोकतंत्र के लिए हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई है।
जैसा कि आप सभी भी जानते हैं कि लोकतंत्र संख्या-बल पर चलता है परन्तु
बिहार में आपको ऐसे पंचायत भी मिल जाएंगे जहाँ दो-चार घर ही हरिजन हैं फिर
भी वे ही पंचायत के मुखिया,सरपंच आदि सबकुछ हैं। यह लोकतंत्र और बहुमत के
सिद्धांतों के साथ मजाक नहीं है तो और क्या है? इसलिए मैं बिहार सरकार से
मांग करता हूँ कि वो जातीय आधार पर पंचायतों में लागू अतार्किक आरक्षण को
समाप्त करे,लिंग आधारित आरक्षण को वो चाहे तो जारी रख सकती है। हाँ,अगर
पंचायतों में भी आर्थिक आधार पर आरक्षण करना हो तो ऐसा जरूर किया जा सकता
है।
मित्रों,कदाचित् हमारे राजनेताओं द्वारा ऐसा मान
लिया गया है कि सिर्फ पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों-जनजातियों में ही
गरीबी है। हालाँकि बीपीएल सूची चीख-चीख कर यह सच्चाई बयान कर रही है कि
बिहार के कम-से-कम 90 % सवर्ण भी गरीब हैं। फिर क्यों नहीं मिलना चाहिए
सवर्णों को भी आरक्षण का लाभ?
मित्रों,जब बिहार में
2010 में विधानसभा चुनाव प्रचार चल रहा था तब सत्ता और विपक्ष दोनों ही से
संबंधित दलों ने एकस्वर में गरीब सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का
वादा किया था। चुनावों में सवर्णों ने एकजुट होकर अपना विश्वास एकबार फिर
से राजग के प्रति व्यक्त किया। सुशासनी सरकार ने चुनावों के बाद इस मुद्दे
पर विचार करने के लिए एक लॉलीपॉपी या झुनझुना सदृश सवर्ण आयोग का गठन भी
किया। परन्तु अब दो साल से ज्यादा वक्त गुजरने के बाद भी इस दिशा में कोई
खास प्रगति होती दिख नहीं रही है जिससे बिहार की सवर्ण जातियों में राजग के
प्रति गुस्सा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले दो सालों में आयोग
के अध्यक्ष और सदस्यों ने सिर्फ नौ जिलों वैशाली, लखीसराय, मुंगेर,
भागलपुर, खगडिय़ा, बेगूसराय, जहानाबाद, अरवल और भोजपुर का दौरा किया है।
वहीं, उपाध्यक्ष श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह ने इन जिलों के अलावा सुपौल, सहरसा,
समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी जिलों का दौरा किया है। पांच सदस्यीय आयोग
में अध्यक्ष दिनेश कुमार त्रिवेदी को वेतन मद में 1.14 लाख, उपाध्यक्ष
श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह को 1.20 लाख रुपए मिलते हैं। जबकि सदस्य नरेंद्र
कुमार सिंह, मो.अब्बास उर्फ फरहत, संजय प्रकाश मयूख को 1.34 लाख रुपए वेतन
के रूप में प्रतिमाह भुगतान होता है। आयोग के लिए राज्य सरकार अब तक 1.78
करोड़ रुपए का अनुदान दे चुकी है। वर्ष 2011-12 में 1.40 करोड़ और वर्ष
2012-13 में 38.29 लाख रुपए। इन पैसों से आयोग के सदस्यों के वेतन भुगतान व
अन्य कार्य हो रहे हैं। इसके अलावा आयोग के लिए राज्य सरकार अन्य सुविधाएं
भी मुहैया करवाती है। इनमें सरकारी वाहन आदि शामिल हैं।
मित्रों,हाल ही में जदयू के जन्मना ब्राह्मण और बड़बोले नेता शिवानंद
तिवारी ने आदतन बकवास करते हुए कहा है कि बिहार के सवर्णों को आरक्षण देने
की कोई जरुरत नहीं है। बल्कि बिहार के सवर्णों को इस बात से ही संतोष कर
लेना चाहिए कि राज्य का विकास हो रहा है। दीगर है कि श्री तिवारी ने कभी
जीवन में सवर्णों की राजनीति की ही नहीं है बल्कि वे हमेशा पिछड़ों की
राजनीति करते रहे हैं इसलिए उनके लिए यह स्वाभाविक है कि वे वंश की
कुल्हाड़ी की तरह व्यवहार करें और अपनी ही जाति ब्राह्मणों सहित सवर्णों को
शेष जीवनपर्यन्त क्षति पहुँचाते रहें। मैं शिवानंद जी और उनकी तरह की सोंच
रखनेवाले दुर्लभ स्वार्थी नेताओं से जानना चाहता हूँ कि जब सामाजिक रूप से
पिछड़ों (आर्थिक रूप से नहीं) को आरक्षण देने का सवाल देश के सामने था तब
तो देश की समस्त जनता को संसाधनों पर समान अधिकार और उनके समान बँटवारे का
तर्क दिया जा रहा था तो क्या गरीब सवर्ण विदेशी हैं? क्यों उनको देश के
संसाधनों पर समान अधिकार और समान अवसर नहीं दिया जाना चाहिए? उनको यह भी
बताना चाहिए कि कैसे राज्य का विकास-दर ऊँचा रहने से गरीब सवर्ण स्वतः
लाभान्वित हो जा रहे हैं और कैसे पिछड़ी और दलित जातियों के लोग स्वतः
लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। आज मेरे गाँव वैशाली जिले के जुड़ावनपुर
बरारी में मेरे सगे चाचा सहित 90 % राजपूतों की आर्थिक हालत पिछड़ी जातियों
के पड़ोसियों से भी ज्यादा खराब है। उनकी ही तरह वे भी सरकारी गेहूँ-चावल
खाकर दिन काट रहे हैं। उनके बच्चे भी भुखमरी के चलते अपनी स्कूली शिक्षा तक
पूरी नहीं कर पाए। वे भी अपनी लड़कियों की शादी में कुछ हजार रुपए तक भी
व्यय नहीं कर सकते। फिर उनकी हालत,उनकी फटेहाली,उनके बच्चों की अधूरी
शिक्षा,उनकी भूख,उनकी गरीबी,उनकी बेबसी,उनका कुपोषण,उनका दर्द हमारे पिछड़े
और दलित पड़ोसियों से अलग कैसे है? और जब अलग नहीं है तो फिर क्यों उनको
और उनके बच्चों की आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए?
मित्रों,एक बात और जैसा कि हम जानते हैं कि माननीय उच्चतम न्यायालय के
आदेश से पिछड़ी जातियों में क्रीमी लेयर का नियम लागू है। मैं मानता हूँ कि
इसे गरीब सवर्णों को मिलनेवाले आरक्षणों में भी लागू किया जाना चाहिए और
वो भी वास्तविक रूप में न कि सिर्फ कागजों पर जैसा कि अभी हो रहा है।
खाते-पीते घरों के जन्मना पिछड़ी जातियों के बच्चे भी गलत आय-प्रमाण पत्र
देकर अभी जो आरक्षण का लाभ ले ले रहे हैं इसे बंद करना होगा। मैं समझता हूँ
कि संसद आरक्षण के नियमों में संशोधन करे और एक परिवार के सदस्यों को
सिर्फ एक बार ही आरक्षण का लाभ दिए जाने का प्रावधान करे तो बेहतर होता
क्योंकि ऐसा होने से अवसर से वंचितों वास्तविक लोगों को भी आरक्षण का लाभ
प्राप्त हो पाता।
1 comment:
कोई एसी वेवस्था की मांग क्यों नहीं करता की आरक्षण मांगने की जरुरत ही न हो
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