दिल्लीवाले बाबा की तिलस्मी कहानियाँ ।
स्थल - अत्यन्त अमीर महानुभावों की महासभा ।
"चीं..ई..ई..ई..ई..!" कार आकर ठहरी और अपने अंगरक्षक की बड़ी फौज के साथ, दिल्लीवाले बाबा सभामंडपमें प्रवेश करते हैं । साथ ही उनकी जयजयकार गूंजने लगती है ।
वत्स, चलो अब सीधा पॉईंट पर आते हैं..!
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दिल्लीवाले बाबा- " क्यूँ होता है ऐसा? आप लोग क्यूँ करते है ऐसा? दीजिए, जवाब दीजिए..! हाँ..हाँ, मैं आप सब से पूछ रहा हूँ..बोलीए..बोलीए ?"
एक अमीर श्रोता," अरे..या..र, ये तो आते ही हम पर भड़क रहा है..! हम से कोई ग़लती हो गई है क्या?"
दूसरा अमीर श्रोता," बिलकुल, इसे यहाँ आमंत्रित करने की..ही..ही..ही..ही..ई..!"
दिल्लीवाले बाबा," सब चुप हैं....सब के सब चु..उ..उ..प हैं, है ना? आप स...ब चुप हैं....क्योंकि, मेरी बात आप की समझ से परे हैं..! ठीक है..ठी..क है..! कोई बात नहीं, मैं.., मैं..ई..आप को समझाता हूँ और वह भी एक रोचक कहानी के ज़रिए..! ज़रा ध्यान से सुनिएगा..!
वही अमीर श्रोता," या..र..अ..अ.., क्या हम यहाँ कहानियाँ सुनने को आए हैं?"
वही दूसरा अमीर श्रोता," सुन ही लेते हैं, क्या फर्क पड़ता है..!"
दिल्लीवाले बाबा," वैसे कहानी लंबी नहीं है..! एक बार मेरे पास, विदेश से कुछ लोग आए और उन्हों ने मुझ से कहा, हम हमारी चंद तकनीकी समस्याएँ, आप के किसी निष्णात के पास जाकर सुलझाना चाहते हैं..! मैंने कहा, ठीक है, आप फलाँ-फलाँ विद्यालय में, फलाँ-फलाँ विद्वान प्राद्यापक को जाकर मिलें, आप की सारी समस्याओं का समाधान तुरंत हो जाएगा..!
वह सभी लोग वहाँ गए और उस विद्वान प्राद्यापक से मिल कर वापस जब, मेरे पास आए तब उन्हों ने, मुझ से, ये कहा कि, हमारी यही समस्याओं का समाधान हम यदि विदेश में कराते, तब हमें अनेक गुना खर्च करना पड़ता, यहाँ आपके `रेफरन्स` से, हम उस विद्वान प्राद्यापकजी से मिले और हमारी समस्या, बहुत कम खर्च में सुलझ गई..!"
वही अमीर श्रोता, "या..र, ये तो बड़ी अच्छी वात है..!"
दिल्लीवाले बाबा," चलिए, अब आप सब मुझे ये बताईए कि, आपने इस कहानी से क्या बोध प्राप्त किया...! यस, हाथ उपर करें.., कोई नहीं? ठीक है, मैं ही बता देता...आ...आ..,
( इतने में, वही श्रीमंत श्रोता ने हाथ उपर किया । ) वेरी नाईस, आप बताईए, अरे कोई इनको एक माईक तो देना भैया..!"
वही अमीर श्रोता,(माईक पा कर)" हैलॉ..वन-टू-थ्री-फोर..हैलॉ-हैलॉ-हैलॉ, हाँ सब ठीक है..!
सर...जी, सब से पहले, इतनी अच्छी कहानी सुनाने के लिए, हम सभी की ओर से, आप का बहुत-बहुत धन्यवाद जी..! इतनी बढ़िया कहानी, बचपन में मेरी माँ ने कभी नहीं सुनाई जी..!"
दिल्लीवाले बाबा,"अरे, क्या बात करते हो..! मेरी माँ तो, रात को मेरे पास आकर रोते- रुलाते ढ़ेरों नई-नई कहानियाँ सुनाए बगैर आज भी मुझे सोने नहीं देती..!"
वही अमीर श्रोता," सर..जी, आप की इस तिलस्मी कहानी में बड़ा ही ग़हरा उपदेश छिपा हुआ है जी..! पहला उपदेश - किसी को भी विदेश में नहीं रहना चाहिए क्योंकि, वहाँ हमारे देश से भी ज्यादा समस्याएँ है, ठीक है जी..!
दूसरा उपदेश- अगर विदेश में रहनेवालों को कभी भी, किसी भी समस्या का अगर समाधान चाहिए हो तो, सब से पहले यहाँ आकर उन्हें, आप से मिलना चाहिए, ठी...क है जी..ई..!
अब तीसरा उपदेश ये है कि, इस देश में, आप के रेफरन्स से, कहीं भी जानेवाले की समस्या, यूँ चुटकियों में सुलझ जाती है औ...र वह भी बहुत कम खर्च में, वर्ना इन सारे सरकारी बाबुओं को तो सब जानते हैं जी..!
अब चौथा उपदेश- (बाबा का एक अंगरक्षक दौड के पास आता है और माईक छिन लेता है ।) अ..रे..अ..रे..भैया, पूरा तो करने दो, मेरा माईक, मेरा माईक, मे..ए..ए..ए..रा माई..ई..ई..क..!"
वही दूसरा अमीर श्रोता," अ..बे, शराफ़त से बैठ जा..! बाबा के रेफरन्स से, बाबा की खुद की समस्या का (तुम?) समाधान करने हेतु ये पहलवान आया है..! ही..ही..ही..ही..ही..!"
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दोस्तों, आप क्या समझे, कुछ नहीं?
हालाँकि, इस तिलस्मी कहानी से मैं ने यही उपदेश पाया है कि, इस देश के सभी मतदाता-नागरिक ने, ख़ुद का सही मूल्य कभी न समझा है, ना कभी किया है..! जाने दो या..रों..! शायद, यही तो है, मेरा भारत महान?
क्या और दो कहानियाँ बाक़ी रह गई ? छोड़ो दोस्तों, फिर कभी, ऐसा प्रलाप सुने ना सुनें, क्या फ़र्क़ पड़ता है..!
मार्कण्ड दवे । दिनांकः ०५-०४-२०१३.
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