इस बात का आभास तो राहुल को पहले से ही था कि प्रदेश में कांग्रेस दिग्गी,कमलनाथ,सिंधिया,पचौरी और भूरिया गुट में बंटी हुयी हैं। लेंकिन अपने प्रवास के दौरान इस बात को खुलकर देख लिया कि उनके सामने भी यह रुकी नहीं। हालांकि राहुल गांधी ने काफी सख्त लहजे में गुटबाजी समाप्त करने की नसीहत दी है लेकिन प्रदेश के दिग्गजों पर इसका कितना असर होगा? यह कहना अभी संभव नहीं हैं। राहुल गांधी को शायद इस बात की जानकारी ही नहीं लग पायी कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस में जिले भी पट्टेदारों के बीच बंटे हुये हैं।ये पट्टेदार इतना अधिक सिर्फ अपना हित साधने के आदी हो चुके हैं कि वे अपने ही नेता के अन्य समर्थकों का हित भी नहीं देखना चाहते है। ऐसी स्थिति में उनसे कांग्रेस के हित देखने की तो कल्पना भी करना बेमानी ही होगी।कई अधिकृत नेता तो पहुंच ही नहीं पाये और पट्टेदारों के कृपा पात्र नेताओं को ना सिर्फ पास जारी कर दिये गये वरन उन्होंने मुखर होकर अपनी बात भी रखी। सिवनी जिला कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। अब कांग्रेस का एक ही विधायक हैं।ऐसा क्यों और किसके कारण हो रहा है? इसका खुलासा भी राहुल के सामने नहीं हो पाया। जिन नेताओ ने कहना मान कर कांग्रेस के खिलाफ विधानसभा का चुनाव बागी होकर लड़ लिया उन्हें उसी क्षेत्र से विस की टिकिट और जिन्होंने कांग्रेस को हराने के लिये भीतरघात कर पार्टी को हराने का काम किया उन्हें संगठन में पद देकर नवाजने का सिलसिला सालों से बदस्तूर जारी हैं।
राहुल भी रूबरू हुये प्रदेश कांग्रेस की गुटबाजी से- विगत 24 और 25 अप्रेल का दिन प्रदेश की कांग्रेस की राजनीति के लिये बहुत ही अहम रहा हैं। इन दिनों कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी मिशन 2013 और 2013 की नब्ज टटोलने के लिये आये थे। प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता भी चिंतित थे कि ना जाने कब कौन सी बात जानलेवा बन जाये। अपने दो दिनों के प्रवास में वैसे तो राहुल गांधी ने अपनी तरफ से प्रदेश में कांग्रेस की जमीनी हकीकत पता करने के पूरे प्रयास कियो लेकिन उन्हें कितनी हकीकत पता लग पायी इसे लेकर तरह तरह की चर्चायें हैं। इस बात का आभास तो राहुल को पहले से ही था कि प्रदेश में कांग्रेस दिग्गी,कमलनाथ,सिंधिया,पचौरी और भूरिया गुट में बंटी हुयी हैं। लेंकिन अपने प्रवास के दौरान इस बात को खुलकर देख लिया कि उनके सामने भी यह रुकी नहीं। केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ तो इस दौरान आये ही नहीं। जो बड़े नेता थे उनके समर्थक भी अलग अलग खेमों में दिखायी दिये। चुनाव जीतने के लिये इन दिग्गजों में एका करना सबसे बड़ी जरूरत हैं। हालांकि राहुल गांधी ने काफी सख्त लहजे में गुटबाजी समाप्त करने की नसीहत दी है लेकिन प्रदेश के दिग्गजों पर इसका कितना असर होगा? यह कहना अभी संभव नहीं हैं।
कांग्रेस में जिले भी बंटे हुये है पट्टेदारों के बीच-कांग्रेस के सिस्टम को आमूल चूल बदल देने का संकल्प लेने वाले राहुल गांधी को शायद इस बात की जानकारी ही नहीं लग पायी कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस में जिले भी पट्टेदारों के बीच बंटे हुये हैं। प्रदेश के किसी ना किसी दिग्गज नेता का पट्ठा हर जिले का पट्टेदार बना बैठा है। ये पट्टेदार इतना अधिक सिर्फ अपना हित साधने के आदी हो चुके हैं कि वे अपने ही नेता के अन्य समर्थकों का हित भी नहीं देखना चाहते है। ऐसी स्थिति में उनसे कांग्रेस के हित देखने की तो कल्पना भी करना बेमानी ही होगी। हालात यह हैं कि ऐसे पट्टेदारों का ना सिर्फ समूचे संगठन पर उनका उही कब्जा है वरन स्थानीय निकायों के जन प्रतिनिधि भी उनके अपने ही चुने जाते हैं। यदि किसी दूसरे नेता को कांग्रेस की टिकिट भी मिल जाती है तो वे उसे निपटाने में भी कोई परहेज नहीं कर पाते है। पट्टेदार खुद के भले के लिये भाजपा नेताओं के साथ नूरा कुश्ती खेलने में भी संकोच नहीं करते हैं। ऐसे में प्रदेश में जिलों के हालात यह हो गये हैं कि इनमें पट्टेदार कों ताकतवर हो गये हैं लेकिन कांग्रेस का सफाया सा हो गया हैं।
पोल ना खुलने की जुगत में लगे रहे पट्टेदार-कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी के सामने कहीं अपनी पोल ना खुल जाये इसकी जुगत जमाने में ही पट्टेदार लगे रहे। इस प्रयास में यह तक किया गया कि किस नेता को उनके कार्यक्रम में जाने की पात्रता है और किसे नही? इसका खुलासा ही नहीं किया गया। प्रदेश कांग्रेस के निर्देश के अनुसार नेताओं से उनके फोटो तो मंगवा लिये गये लेकिन आखरी तक यह नहीं बताया गया कि उन्हें राहुल के कार्यक्रम में जाना हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकृत नेता तो पहुंच ही नहीं पाये और पट्टेदारों के कृपा पात्र नेताओं को ना सिर्फ पास जारी कर दिये गये वरन उन्होंने मुखर होकर अपनी बात भी रखी। ऐसे हालात में कितनी सच्चायी राहुल के सामने आयी होगी इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है।
सिवनी जिले के पट्टेदार बन बैठे हैं हरवंश-पिछले लगभग पंद्रह सालों से जिले के इकलौते कांग्रेस विधायक और विस उपाध्यक्ष हरवंश सिंह पट्टेदार बने हुये हैं। यह जिला कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। सन 1952 से लेकर 1990 तक जिले के सभी विस क्षेत्रों पर कांग्रेस का कब्जा रहा करता था। सिर्फ 1962 का चुनाव ऐसा था जिसमें कांग्रेस तीनों सामान्य सीटें राम राज्य परिषद से हार गयी थी लेकिन दोनों आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस की ही जीत हुयी थी। लेकिन पांच साल बाद ही कांग्रेस ने 1967 में पुनः पांचों सीटें जीती और 1977 की जनता लहर में भी कांग्रेस का यह किला सुरक्षित रहा और समूचे उत्तर भारत में इसने एक रिकार्ड बनाया था। कांग्रेस में जिले में गुटबाजी तब भी थी लेकिन टिकिट मिलने में एक दूसरे के प्रत्याशी को कटवाने तक सीमित थी लेकिन टिकिट मिलने के बाद कांग्रेस को निपटाने का काम नहीं होता था जो अब होने लगा हैं। आज हालात यह हैं कि हरवंश सिंह तो केवलारी से 1993 से लगातार कांग्रेस के विधायक हैं लेकिन उनके ही क्षेत्र से कांग्रेेस लोकसभा में नहीं जीतती हैं। इसके लिये उनसे कभी सवाल जवाब भी नहीं किया गया। सिवनी और बरघाट सीट से कांग्रेस पांच चुनाव लगातार हार चुकी हैं। और तो और 1977 और 1990 के चुनाव मे भी कांग्रेस के सबसे मजबूत किले रहे लखनादौन को भी भाजपा 2003 में ध्वस्त कर चुकी हैं। ऐसा क्यों और किसके कारण हो रहा है? इसका खुलासा भी राहुल के सामने नहीं हो पाया।
बागियों को टिकिट और भीतरघातियों को बांटे गये पद-अक्सर यह कहा जाता है कि बड़ा काम करने वाले को बड़ा और छोटा काम करने वाले को छोटा इनाम दिया जाता हैं। ऐसा ही कुछ इस जिले में होता रहा है। जिन नेताओ ने कहना मान कर कांग्रेस के खिलाफ विधानसभा का चुनाव बागी होकर लड़ लिया उन्हें उसी क्षेत्र से विस की टिकिट और जिन्होंने कांग्रेस को हराने के लिये भीतरघात कर पार्टी को हराने का काम किया उन्हें संगठन में पद देकर नवाजने का सिलसिला सालों से बदस्तूर जारी हैं। जब हरवंश सिंह प्रदेश के पंचायत मंत्री थे तब उनके गृह जिले से 1998 का चुनाव बागी हाकर कांगेस के जनपद अध्यक्ष बेनी परते ने लड़ा और 2001 में हुये उप चुनाव में ही उन्हें उसी क्षेत्र से कांग्रेस की टिकिट मिल गयी।हरवंश सिंह के केवलारी क्षेत्र के जनपद के उपाध्यक्ष भोयाराम ने 1998 का चुनाव बरघाट क्षेत्र से बागी होकर लड़ा और 2003 में उन्हें बरघाट से ही पार्टी की टिकिट मिल गयी। 1996 में कांग्रेस की विमला वर्मा के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले आदिवासी नेता शोभाराम भलावी ने 44 हजार वोट लेकर कांग्रेस को हराने में अहम भूमिका निभायी उन्हें 1997 एवं 2000 में केबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ निगम अध्यक्ष बनाया गया और फिर 2003 में लखनादौन से विस चुनाव में टिकिट दे दी गयी। कहा जाता है कि प्रदेश में गौड़वाना गणतंत्र पार्टी की नींव यहीं से मजबूत हुयी थी। भीतरघातियों को पार्टी संगठन में पद देने वालों की संख्या तो इतनी अधिक है कि उसका उल्लेख करना ही संभव नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी के सामने कोई भी तथ्य सामने ना आये हों। नेताओं ने आदिवासी और मुस्लिम वोटों के कांग्रेस से खफा होने का उल्लेख जरूर किया लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? इसका खुलासा नहीं हो पाया। अपने कर,फर और बल से हरवंश सिंह इस बार भी सफल रहें कि राहुल गांधी के सामने उनकी पोल खुलने से बच गयी। “मुसाफिर”
दर्पण झूठ ना बोले
30 अप्रेल 2013 से साभार
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