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10.9.23

दल बदलू नेता बनने से नहीं चलेगा काम

Aman Pandey-

बीते 5 सितंबर को 6 राज्यों के 7 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए। नतीजतन 8 सितंबर की शाम होते-होते उपचुनाव के नतीजे भी डिक्लीयर हो गए। 7 सीटों में से 3 बीजेपी जबकि 4 सीटों पर विपक्ष पार्टियों की झोली में गए। सबसे ज्यादा जिस सीट को मीडिया ने तवज्जो दी वो है उत्तर प्रदेश के मऊ जिले की घोसी विधानसभा सीट। सपा के सुधाकर सिंह ने बीजेपी के दारा सिंह चौहान को 40 हजार से अधिक वोटों के बड़े अंतर से हराया। लेकिन घोसी की हार को समझना भी अत्यन्त जरूरी।


 


दल-बदल से छवि होती है ख़राब

राजनीति में नेता कब किस पार्टी में चला जाए इसका अंदाजा लगा पाना उतना ही मुश्किल है जितना दूध में पड़े पानी की पहचान करना। कुछ यूं ही हाल है दारा सिंह चौहान का। बसपा से सपा, सपा से बीजेपी, बीजेपी से पुनः एक बार सपा, फिर सपा से बीजेपी। अतीत के हिसाब से दारा सिंह चौहान टिकाऊ नेता तो कतई नहीं है। हां मौका परस्त जरूर है। जिस पार्टी ने सिंहासन की पेशकश की दारा सिंह चौहान उसी पार्टी की तरफ़ चल दिए। ना कोई नैतिकता और ना ही कोई विचारधारा, और ना की अपने वजूद की कीमत। संभवतः इस बात को स्वीकार किया जा सकता है कि दारा सिंह चौहान का टिकाऊ ना होना और दल बदलू नेता की छवि ने उन्हें उपचुनाव में हरा दिया। लेकिन ग़ौर करने वाली एक बात और है। ऐसा कहा जाता है कि उपचुनाव में सत्ता पक्ष के उम्मीदवार के जीतने की संभावना प्रबल होती है लेकिन घोसी के नतीजे बिल्कुल उलट है।

जनता के जनादेश का सम्मान जरूरी

2022 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अपेक्षा का आरोप लगाते हुए दारा सिंह चौहान ने बीजेपी और मंत्री पद से इस्तीफा देते हुए समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर लिया। मैं इस बात पर पूरी तरह आश्वस्त हूं कि उस समय दारा सिंह चौहान को यह एहसास हुआ होगा कि शायद सूबे में सरकार बदलने जा रही है। परंतु नतीजा उनके सोच से बिल्कुल परे था। 2017 की अपेक्षा बीजेपी को 50 से अधिक सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा लेकिन प्रदेश की सत्ता फिर भी बीजेपी के पास रही। उत्तर प्रदेश की जनता ने बीजेपी पर एक बार मुझे विश्वास जताया। यहां भी गौर करने वाली एक बात और है कि 2017 से 2022 तक दारा सिंह चौहान उत्तर प्रदेश राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। 5 साल तक सत्ता की मलाई खानें के बाद दारा सिंह चौहान का ज़मीर जाग उठा और समाज का सहारा लेकर अलग रास्ता अपना लिया। लेकिन एक साल में ऐसा क्या हो गया कि उन्हें बीजेपी अच्छी लगने लगी। पहली नजर में देखा जाए तो दारा सिंह चौहान सत्ता से दूर है, और उन्हें इस समय मलाई की जरूरत है बिना सत्ता में रहें मालाई खाना राजनीति में तो बहुत ही मुश्किल है। लेकिन दूसरा पहलू उनके उस समाज से है जिस समाज से वो ताल्लुक रखते हैं। लेकिन दारा सिंह चौहान को उनके समाज से भी उतना समर्थन नहीं मिला जितना उन्हें उम्मीद थी।

घोसी में बहन जी का रोल

घोसी विधानसभा उपचुनाव में बहन जी ने अपना प्रत्याशी ना देकर अपने वोटर्स के मूड को पहचानने का काम किया है।‌ गौरतलब है कि मायावती जी की पार्टी विपक्षी गठबंधन इंडिया से फिलहाल बाहर है। समय समय पर वो इंडिया गठबंधन को लताड़ या अपने न होने का एहसास दिलाती रहती है। ध्यान देने वाली एक बात और है। 2014 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीट में से बीजेपी गठबंधन को 73 , कांग्रेस को 2 और सपा को 5 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। लेकिन बहन जी का खाता तक नहीं खुला। वो भी उस राज्य में जहां कि वो 4 बार मुख्यमंत्री रहीं हैं। जहां पर माया और मुलायम ने कांग्रेस और बीजेपी जैसे राष्ट्रीय पार्टी को 15 सालों तक उत्तर प्रदेश की राजनीति के मुख्य धारा से दूर रखा। वो मायावती 2014 के आम चुनाव में अपना खाता तक नहीं खोल सकी। लेकिन बात केवल लोकसभा की होती फिर भी ठीक 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बहन की बहुजन समाज पार्टी को 20 से भी कम सीटें मिली । अखिलेश यादव और मायावती दोनों को यह एहसास हुआ कि अकेले बीजेपी से मोर्चा लेना वर्तमान राजनीति नजरिए से ठीक नहीं है।‌ नतीजतन सपा बसपा में गठबंधन हुआ। लेकिन राष्ट्रवाद के आगे ये गठबंधन भी उतना कारगर साबित नहीं हुआ जितने की उम्मीद मायावती जी और अखिलेश यादव कर रहे थे। 2014 में खाता न खोलने वाली बसपा 10 जबकि सपा 5 सीट जीतने में कामयाब रही। इस गठबंधन का फायदा बहन जी को तो हुआ लेकिन अखिलेश को नहीं। वोट न मिलने का आरोप लगा कर बहन जी ने गठबंधन तोड़ दिया।

आजमगढ़ उपचुनाव में दिखा बहन जी का रोल

2019 लोकसभा चुनाव में राष्ट्रवाद हावी था। बीजेपी पुनः दूसरी बार 2014 की अपेक्षा अधिक सीटों के साथ दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई। मोदी शाह की जोड़ी की चर्चा उस समय भारतीय राजनीति के सातवें आसमान पर थी। लेकिन आजमगढ़ में ये जोड़ी कमाल न दिखा सकी और न ही गाजीपुर में। पूर्वांचल के इन दोनों सीटों पर सपा बसपा गठबंधन के प्रत्याशी को जीत मिली। आजमगढ़ से सपा प्रमुख अखिलेश यादव तो गाजीपुर सीट से बसपा के टिकट पर बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी को जीत मिली। लेकिन यहां भी ग़ौर करने वाली बात है। बीजेपी ने भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री के हीरो और गीतकार दिनेश लाल यादव ( निरहुआ ) को अखिल यादव के सामने उतारा। निरहुआ भी यादव बिरादरी से है। राष्ट्रवाद की प्रबलता और यादव वोटों में बिखराव की उम्मीद से बीजेपी निरहुआ को लोकसभा में भेजना चाहती थी लेकिन ऐसा हो न सका। अपने जीत को लेकर आश्वस्त रहने वाले मनोज सिन्हा को भी गाजीपुर सीट गंवानी पड़ी।

2022 में मैनपुरी के करहल विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने जाने के बाद अखिलेश यादव ने सांसदी के पद से इस्तीफा दे दिया। उपचुनाव हुए दिनेश लाल यादव निरहुआ एक बार फिर से बीजेपी के सिंबल पर मैदान में उतरे और उन्हें कामयाबी भी मिली लेकिन इतनी आसानी से नहीं। उपचुनाव के ऐन वक्त पहले गुड्डू जमाली बसपा में शामिल हुए और मायावती ने उन्हें मैदान में उतारा। नतीजा फिर वहीं हुआ जिसका अंदाजा लोग या बड़े बड़े पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक लगा रहें थे। 10 हजार से कुछ ज्यादा वोटों से निरहुआ को जीत मिली। लेकिन जमाली के मैदान में उतरने से मुस्लिम मतों में हुए विभाजन से बीजेपी को लाभ हुआ।

क्या फिर सपा बसपा में होगा गठबंधन..?

घोसी विधानसभा उपचुनाव में प्रत्याशी न उतारकर मायावती ने अपने वोटर्स का मूड भांप लिया है और वो समझ भी गई है कि उनके मतदाता या समर्थक क्या सोच रहे हैं। हालांकि बहन जी ने कुछ दिनों पहले ही ये साफ कर चुकी है कि वो अकेले लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। लेकिन राजनीति में कब क्या हो जाए कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कब सत्ता कब विपक्ष इसका अंदाजा लगाना भुकंप आने के पता लगाने से भी मुश्किल काम है। उदाहरण के लिए कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, हरियाणा को ही देख लीजिए। जिस ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी और उसके समर्थक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का नाम ले ले कोसते रहते थे वही ज्योतिरादित्य सिंधिया अब बीजेपी में है। अलग अलग विचारधारा से ताल्लुक़ात के बावजूद जम्मू और कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी मिलकर सरकार चलाती है। अभी लोकसभा चुनाव में अभी कम से कम 6 महीने का समय शेष है ऐसे में कब क्या हो जाए कुछ भी अंदाजा लगाना मुश्किल है। परंतु एक बात स्पष्ट है यदि बसपा और सपा में गठबंधन नहीं हुआ तो संभवतः बीजेपी 2014 वाली संख्या को एक बार पुनः प्राप्त कर सकतीं हैं।

हिंदी पट्टी में अभी भी बीजेपी मजबूत

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल और बिहार। इन सभी राज्यों के लोकसभा सीटों की संख्या 225 है। बिहार को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में बीजेपी बहुत मजबूत है। और विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हिंदी बेल्ट ही है। 2014 और 2019 तथा वर्तमान परिदृश्य के विपक्ष को देखकर मैं ये अनुमान लगा पा रहा हूं कि हिंदी पट्टी में बीजेपी बहुत अधिक संभावना के साथ लगभग क्लीनस्वीप करेगी। 225 लोकसभा सीटों में से बीजेपी कम से कम 175 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी..! बाकी फिर वही कहूंगा जनता जनार्दन जिंदाबाद 🙏

ap155311@gmail.com

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