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16.9.23

स्मरण/ सुनील दुबे : व्यक्तित्व की कमी, संपादन की खूबी

आलोक पराड़कर -

ये 1997-98 का कोई वार था। लखनऊ से प्रकाशित 'हिन्दुस्तान' के लिए बनारस में ब्यूरो की तैयारी थी, कुछ लोगों को रखा जाना था। छह-सात साल 'आज' में काम करने के बाद मैं वहां से मुक्त था और मुझे नौकरी की तलाश थी। बताया गया कि स्थानीय संपादक सुनील दुबे स्वतः साक्षात्कार लेंगे। कई लोग थे, मैं भी पहुंचा। पत्रकारिता पर थोड़ी बातचीत के बाद उन्होंने बस ये ही पूछा था कि 'आज' की नौकरी क्यों छोड़ी? मुझे याद नहीं कि मैंने क्या वजह बताई लेकिन फिर मुझे पता चला कि मुझे वाराणसी ब्यूरो में रख लिया गया है। हमारी छोटी-सी टीम संपादकीय टीम थी जिसमें मेरे साथ राधेश्याम कमल, अजय चतुर्वेदी, आशुतोष पांडेय और डॉक्टर प्रभा रानी थीं। काशी विद्यापीठ और कांग्रेस से जुड़े डाक्टर सतीश कुमार लंबे समय से दिल्ली 'हिन्दुस्तान' के लिए खबरें किया करते थे, इसलिए वे भी इस टीम में शामिल माने गए। हमारा नेतृत्व ब्यूरो चीफ शेखर कपूर करते थे। बाद में ए.के.लारी भी आए। दुबे जी जब भी बनारस आते, लारी जी और रंजीत गुप्त उनके साथ होते। दुबे जी इनके साथ किसी पंडित जी से भी मिलने जाते। कई बार ये भी कहा जाता कि जल्द ही रंजीत गुप्त भी हमारे साथ आ जाएंगे जो उन दिनों 'राष्ट्रीय सहारा' में थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 



कपूर बनारस के बाहर के थे। उनके लिए सपा नेता अमर सिंह के फोन आते थे। कई बार ये फोन मैंने भी उठाए। अमर सिंह जब भी बनारस या पूर्वांचल के दौरे पर होते हमारी टीम के किसी सदस्य को कवरेज के लिए लगाया जाता। मुझे याद है कि आजमगढ़ के ऐसे ही एक दौरे पर स्थानीय नेताओं की कार में मुझे भी भेजा गया था लेकिन आते समय भाई लोगों ने मुझे छोड़ दिया। मैंने बस से लौटने की बात जब अपने संपादकीय साथियों को बताई तो उन्होंने भी ऐसे ही अनुभव साझा किए थे। शायद दिल्ली आदि के अनुभवों के कारण कपूर बनारस की पत्रकारिता और हम पत्रकारों को पिछड़ा हुआ समझते थे, जो उनके व्यवहार से झलकता था। वे बनारस में अकेले रहते थे। उन्होंने हमें कार्यालय में टिफिन लाने के लिए प्रेरित किया, जिससे वे भी उसे साझा कर सकें। मेरे मां के हाथ के बने खाने के लिए वे कुछ अधिक ही लालायित रहते। एक बार उन्होंने मेरा टिफिन इतनी तेजी से खींचा था कि वह छिटक कर नीचे गिर गया और सारा खाना बिखर गया था। अक्सर मेरी कलम की प्रशंसा करने के बावजूद वे मुझसे कुछ अधिक ही नाराज रहते थे।शायद हम बनारसियों के स्वभाव में एक अक्खड़पन था जो उन्हें पसंद न आता हो। एक वजह यह भी थी कि मैं 'हिन्दुस्तान' के फीचर पन्नों पर खूब लिखता था। इसका अलग पैसा मिलता था और कई बार यह मानदेय वेतन से अधिक हो जाता। मैं इसे सीधे नागेंद्र जी को भेज देता जो तब लखनऊ में इन फीचर पेजों को देखते थे। कपूर चाहते थे कि ये सब कुछ उनकी देखरेख में हो, लेख उनके माध्यम से भेजे जाएं। वे हमेशा इस बारे में मुझे चेतावनी देते, कई बार लखनऊ से आने वाले चेक भी रोके रखते। हमारे कार्यालय के संपादकीय कक्ष में एक कोने पर कपूर बैठते थे और दूसरे कोने पर लारी, बीच की जगहों में हम थे। कपूर से नाराज लोगों को लारी अधिक अपने लगते थे। लेकिन कपूर में न्यूज सेंस बहुत अच्छा था। तब बनारस के दालमंडी बाजार में मिलने वाले एक छोटे-से चीनी रेडियो पर पुलिस के वायरलेस पर प्रसारित संदेशों को सुना जा सकता था। कपूर ने जब इस पर खबर बनाई तो हड़कंप मच गया। हालांकि इस तनातनी में मैं ज्यादा दिन टिक नहीं सका और कुछ समय बाद वापस 'आज' आ गया।

लेकिन 'हिन्दुस्तान' के इस कार्यकाल में मैंने एक बात महसूस की थी। दुबे जी इस दौरान कई बार आते रहे। उनके साथ हमारी बैठकें होतीं। फोन पर भी उनसे कुछेक बार बात हुई। एक-दो बार लखनऊ जाकर भी भेंट की। यह सच है कि वे बहुत जल्दी नाराज हो जाते थे, फिर उतनी ही जल्दी खुश भी जाते। नाराज होकर वे सामने वाले में डर जरूर पैदा करते लेकिन किसी का नुकसान शायद ही कभी किया हो। उनके बारे में यह मुहावरा ठीक ही है कि वे फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर थे, जैसा कि रविवार को उन पर निकल रही पुस्तक में रेखांकित भी है। मैंने हमेशा देखा है कि इंसान में जो कमी रह जाती है वह उसका प्रत्याख्यान करता है। अक्सर टेलीविजन के रिएलिटी शो में देखता हूं कि बाप खुद गायक बनना चाहते थे, संघर्ष किया, बहुत सफल नहीं हो सके। फिर अपने बेटे-बेटी को बचपन से ही तैयारी कराई और उसे रिएलिटी शो तक पहुंचाया।

सुनील दुबे के संपादन के लंबे कार्यकाल को पत्रकारिता में संतुलन साधने की उनकी कोशिशों के रूप में भी देखना चाहिए। वे व्यक्तित्व में भले ही कभी कोमल या कभी कठोर हो जाते हों लेकिन उन्होंने हमेशा प्रयास यही किया कि खबरों को कभी बहुत कोमल या बहुत कठोर नहीं होना चाहिए। उन्होंने हमेशा हमें यही सीख दी। वे कड़ी से कड़ी खबर में भी आरोपित व्यक्ति का पक्ष लेने के लिए कहते और भावनाओं में बह जाने से भी हमें रोकते रहे। शायद उनकी सफलता का कारण यह संतुलन ही था जिससे हर कोई समाचार पत्र से अपना तादात्म स्थापित कर पाता था। वे नहीं चाहते थे कि समाचार किसी एक पक्ष में खड़ा दिखाई दे। वे खबरों के अनावश्यक विस्तार की जगह बहुत सारी खबरों का पक्ष लेते थे जिसे बाद में दूसरे समाचार पत्रों ने भी अपनाया। इस निरपेक्षता और अधिक से अधिक खबरों के कारण एक समय उनके संपादन में 'हिन्दुस्तान' ने बिहार में अपार लोकप्रियता और प्रसार हासिल किया था।
 
आज की पत्रकारिता को देखता हूं तो यह निरपेक्षता नहीं दिखती है। बहुत सारे पत्रकार और संस्थान सत्ता में पक्ष में होते हैं लेकिन जो गिनती के लोग पक्ष में नहीं हैं, वे पूरी तरह खिलाफ दिखते हैं। वे हर बात को नकारते रहते हैं, जिनसे उनकी छवि भी वैसी ही बन गई है। कई बार वे विपक्ष के प्रवक्ता बन जाते हैं। संगीत में हम कहा करते हैं कि गायक का गला दिल और दिमाग के बीच में होता है। पत्रकारिता की जगह भी कुछ ऐसी ही होनी चाहिए। दुबे जी से लंबा संपर्क तो नहीं रहा लेकिन इन थोड़े दिनों में मैंने हमेशा उनके व्यक्तित्व की कमी को उनके संपादन की खूबी बनते हुए पाया!


 

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