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16.9.23

अखबार की डेड लाईन बनी घोड़े की लगाम

 ग्रामीण पत्रकारिता में अखबार की डेड लाईन का बड़ा महत्त्व है। बाई लाईन खबर के तो क्या कहने ! मजा ही मजा ! नाम भी पहचान भी बहुत करीबियों से मिलता सम्मान भी। उसी से जाना जाता है कि खबर कहां से लिखी गई। जब पत्रकार की डेड लाईन न हो तो वह पत्रकार है या कोई पीड़ित आम जन यह उसके लिए आत्म ग्लानि का विषय होता है। संस्थान ग्रामीण पत्रकारों की डेड लाईन बन्द कर उनको सजा देकर मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं।

ग्रामीण पत्रकारिता का आधार अखबारों की एजेन्सी लेने का चलन काफी पुराना है। कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति अखबार की एजेन्सी लेकर ग्रामीण पत्रकारिता से जुड़ सकता है। कुछ मानक हैं बस उनको वह पूरा करता हो। संस्थान ग्रामीण पत्रकारों को पारिश्रमिक भले ही ना देते हों पर तुर्रमखांही में कोई कसर नहीं छोड़ते। जो भी कुछ तुम्हारे साथ होता रहे आवाज नहीं उठा सकते । अगर यह जहमत ली तो अंजाम कुछ भी हो सकता है।
 
अखबार या विज्ञापन का पैसा समय से  कार्यालय में जमा न होने पर संस्थान के मौखिक निर्देशों के मुताबिक जिला मुख्यालय पर ग्रामीण पत्रकार की डेड लाईन बन्द करने का मौखिक आदेश जारी कर दिया जाता। उसके द्वारा भेजी गई खबरें दया कृपा से भले ही छपती रहें लेकिन उसकी पहचान जिस डेड लाईन से होती है। उसको बन्द करके मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का काम किया जाता है।
 
संस्थान के कर्ता-धर्ता संस्थान से जुड़े लोगों के प्रति कितने संवेदनहीन हैं। यह भुक्तभोगी के अलावा कोई नहीं जान सकता। दूसरे की सीमा रेखा को तय करने वाले भूल जाते हैं कि मानो उनकी कोई सीमा रेखा ही न हो। आखिर ग्रामीण पत्रकारों के साथ यह दुर्व्यवहार कब तक होता रहेगा।जरा सा भी कोई चूक हुई तो घोड़े की लगाम को तंग कर दिया जाता जिससे उसके जबड़े कटने लगते और वह पीड़ा से कराहने लगता। फिर से वह राह - राह सीधे चलने लगता।  अगर वह लगाम लगातार खिंची ही रही तो हश्र क्या होगा ?

लेखक - सुधीर अवस्थी ' परदेशी ' हरदोई जिले में ग्रामीण पत्रकार हैं।
मो० - 9454874675

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