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2.9.08

बिहार की बाढ़ और हम

बिहार में पानी अपनी तबाही मचा रहा है, लोग बचने के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं जो बचे हैं वे अपनी राजनीती के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं. पानी की तबाही एकाएक नहीं आई होगी, क्या समस्या रही क्या कारण रहे ये भी उतना अहम् है जितना की ये कि सरकार या प्रशासन किस स्तर का सहयोग कर रहे हैं. देखा जाए तो पानी के बारे में प्रचिलित एक लोकुक्ति को हम लोगों ने लगभग भुला दिया है और वो ये कि पानी रास्ता मांगे तो उसको दे दो, यदि उसे पूछना पड़ेगा तो तबाही आयेगी।
कहने का तात्पर्य ये कि पानी हमेशा से अपनी चाल से बहता हुआ आनंद देता रहा है. ऐसा नहीं है कि पहले तबाही या बाढ़ नहीं आती थी पर तब ये स्थिति प्राकृतिक होती थी. अब ये स्थिति हम लोगों ने बना दी है. कभी हम बाढ़ के शिकार होते हैं तो कभी हम सूखे के शिकार बन जाते हैं. अभी बिहार की दुखद स्थिति किसी से छिपी नहीं है. क्या इस के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकार या प्रशासन ही जिम्मेवार है? क्या हमारा कोई दोष नहीं दीखता है? यहाँ मेरा मकसद सरकार/प्रशासन की गलतियों को छिपाना नहीं है, अपने दोषों को बताना भी है. हमने स्वार्थ में अंधे होकर ये भी नहीं देखा कि हम किस बेदर्दी से वृक्षों को काटते जा रहे हैं, जमीन का बेतरतीब अधिग्रहण करते जा रहे हैं. नदियों के किनारे, छोटे-छोटे नालों के किनारे भी हमने कब्जा लिए, पानी को रास्ता दिया नहीं और चाहते हैं कि वो अपनी धारा की गति भी न बढाये। यहाँ मनुष्य के एक छोटे से वर्ग के लालच का दुष्परिणाम पूरा बिहार झेल रहा है. गाँवों के गाँव पानी की चपेट में हैं, लाखों आदमी बहते पानी के साथ बह रहा है और हम अभी भी इस कोशिश में हैं कि कहाँ से किसकी जमीन कब्जाई जा सकती है, कहाँ से किसके नाम पर बाढ़ की सहायता राशि लूटी जा सकती है. बहरहाल हालत हमें हमेशा कुछ न कुछ सिखाती है पर हम सीखते नहीं हैं. इस हादसे से भी न सीखे तो कब सीखेंगे?

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