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स्वयंबरा
बिहार में कोसी नदी ने फिर से तांडव मचाया है. बिफरी हुई ये नदी अपनी सारी सीमाओं को तोड़ती हुई विनाश कर रही है. सच, कुदरत के सामने मानव कितना बेबस हो जाता है. मै बिहार की ही रहनेवाली हूँ. मैंने बाढ़ को बहुत करीब से देखा है. जो हर साल हमारे लिए बर्बादी की सौगात लाता है. पर ये तबाही बस उतनी ही नहीं होती जितनी हमें दिखती है. बाढ़ किसी का सबकुछ लूट ले जाता है. ये किसी गर्भवती को पानी में बच्चे पैदा करने पर विवश कर देता है. ये मात्र एक छोटी सी चौकी पर पूरे परिवार को दिन गुजारने पर मजबूर कर देता है. ये सभ्यता को दरिंदगी में बदल देता है. ये आत्मीय जानों को मरते देखने के लिए बेबस करता है. जी हाँ बाढ़ कुछ ऐसा ही होता है.
आप अपने घर की छत पर शरण लेते है और भयावह लहरे आपके पूरे मकान को नीचे-नीचे निगल जाती है. आप बाढ़ से बचने के लिए अपने छोटे बच्चे को सुलाकर इंतजामात करने जाते है, जब लौटते है तो आपको आपके बच्चे का तैरता हुआ शव मिलता है. हाँ, मनुष्य और जंतुओं का सहजीवन जरूर इसी बाढ़ में देखने को मिलता है. क्योंकि उन जंतुओं को भी अपने जीवन की उतनी ही परवाह होती है. भले ही इसके एवज में मानवों को जान गवानी पड़े. अपने बचपन में हमारे लिए बाढ़ हमारे रिश्तेदारों से mइलने की एक वजह हुआ करता था. क्योकि उनका घर बाढ़ में पूरी तरह डूब जाता था और उन्हें हमारे घर में शरण लेना परता था. तब बाढ़ के प्रलयंकारी रूप का पता नही था. अब सोचती हूँ तो लगता है कि उन लोगो को कितनी कठिनैया उठानी होती होंगी. इस बार के बाढ़ ने भी तबाही मचाई है पर सरकार की कूम्भ्करनी नींद तभी टूटी जब चारो और पसर गई बर्बादी. दिखने लगे भूख से बिलबिलाते, डरे, बिलखते चेहरे और शवो के सड़ांध ..वहां लोगों के सहायता के इंतजाम ऊँट के मुँह में जीरा के सामान साबित हो रहे हैं. क्योंकि सच तो ये है की संसाधन उतने है ही नहीं की लोगो को बाढ़ से निकाला जाए. जाहिर है सरकार देखने के आलावा कुछ नही कर सकती. इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित कर देने और १००० करोड़ देने की घोषणायें भी इसमें सुधार नहीं ला सकती. डीएन गौतम का उदाहरण हमें सही सोचने नहीं दे रहा। फिर भी इन घोषणाओं को सुनने और इन्तजार करने के सिवा हमारे पास चारा ही क्या है. साथ ही हमें हाथ जोड़ कर इश्वर से भी प्रार्थना करनी होगी कि वो बिहार के बाढ़ पीड़ितों को सब कुछ बर्दाश्त कर जाने का हौसला दे.
आमीन.
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