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5.9.09

moh

आरती "आस्था"
मोह बहुत करती हूं मैं
निर्मोही भी कम नहीं हूं लेकिन
हर उससे मोह है
मोह की हद तक
जिंदा है इंसानियत जिनके अंदर
वहीं दूसरी ओर
पल भर में
खत्म हो जाते हैं सारे मोह
उसके प्रति
दिखा नहीं पाता जो
सहज मानवता भी
फिर भले ही दुनियां ने
बांध दिया हो मुझे उससे
किसी भी रिश्ते से
मोह नहीं बांध पाता मुझे.......।

3 comments:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर रचना....अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

शिखा शुक्ला said...

aarti ji,sundar rachna......age kya kahoo...shabd hi nahi mil rhe. apki bhavnaye saaf taur par najar aa rahi hai.

The Bihar Vikas Vidyalaya said...

Aap ki kavita padh kar laga jaise mann ki bat padh raha hu -thanks