क्रांतिकारी भडासियों आज बाजार नित नए आयाम तय कर रहा है। और इसने पत्रकारिता को भी अपनी चपेट में लिया है। हालात काफी बदल गए हैं, खबरें बाजार में तय हो रही हैं। कौन सी खबर बेची जाएगी और कितनी बेची जाएगी यह बाजार के दलाल तय कर रहे है। दुख की बात यह भी है कि यह दलाल खुद खबरें भी गढ रहे हैं। किसी प्रोडक्ट को बेचने के लिए झूठी अफवाहें उडाई जा रही है। रिश्तों का लिहाज भी बाजार भूल चुका है। इसलिए अब जो सबसे बडी जिम्मेदारी बचती है वह हम पत्रकारों के उपर आकर टिकती है। पत्रकारिता के उच्च मूल्यों को जिंदा रखते हुए बाजारवाद से कैसे लडना है और दलालों के पर कैसे कतरने हैं यह हमे ही तय करना है। इसलिए सभी पत्रकार साथियों से अनुरोध है कि वह इस बात को समझें और अपनी जिम्मेदारियों का पूरा निर्वाह करें। दूसरी बात यह कि भडास का अपना एक स्तर है और इसे बरकरार रखना हम सभी भडासियों का काम हैं। केवल कुछ लोगों का पैनल यह तय नहीं कर सकता। इस पर क्या लिखना है यह सभी भडासियों को ही तय करना है। पिछले कई पोस्टों में कई लोगों ने इसकी भाषा और तरीके पर सवाल उठाए हैं। मेरा मानना है कि भाषा और तरीका तय करने का हक हर भडासी को है और भडासी जो लिखेंगे वह सब सही है और सबको अपनी भडास रखने का हक है। हां इतना जरूर है कि वह संयमित और किसी को चोट पहुंचाने वाली न हो।
Anil Bharadwaj
20.4.08
पत्रकारिता के उच्च मूल्यों और भडास के स्तर को बचाना है
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10 comments:
सही कहा सर आपने। यह जिम्मेदारी तो हमें ही निभाने होगा।
सही कहा सर आपने। यह जिम्मेदारी तो हमें ही निभाने होगा।
अनिल सर। सत्य वचन। आजकल तो एक हाथ लो दूजे दो हाथ दो वाला मामला चल रहा है। बाजार ने पत्रकारिता को मोहरा बना लिया है। इस पर सभी को सोचने की जरूरत है। साथ ही हम युवा पत्रकारों पर तो और जिम्मेदारी है। बहुत खूब। आशीर्वाद दें।
बेबाक लिखने के लिए बधाई। बाजारवाद पर आपकी चोट वाजिब है।
बेबाक लिखने के लिए बधाई। बाजारवाद पर आपकी चोट वाजिब है।
एक दूसरे की खुजाना भी समाज में पुराना नियम है। तुम भी अबरार वही कर रहे हो। मोटा भाई को म खन मारो लेकिन ये यों भूलते हो कि बाजार ने पत्रकारिता को मोहरा लिया है तो कई पत्रकार भी इसी काम में जुटे हैं। एक पत्रकार अपनी यूनियन के आई कार्ड दूधवालों, गैस एजेंसी वालों और मैनेजरों को बांटकर भी तो वही लाभ लेता है। ये इंटरनेट है बाबू। सबके सामने एक जैसा बोलती है। कमरे में पुआ खाकर बाहर भुखमरी का नाटक इस पर नहींं चलता।
socha tha patarkar ban kar samaj ki gandgi ko dho dalange. lekin aisa na ho saka. msre samagh se akhbar kirane ki dookan hai aour hum Lala ke dookan ke noukar hai. anil bhai hum himmat se jute hain, lekin kabhi-kabhi man bada udas ho jata hai.
अनिल भाईसाहब,आपने सही कहा लेकिन सबके भाषाई पैमाने अलग-अलग हैं इस विषय पर मेरी और यशवंत दादा की काफी किचिर-किचिर हो चुकी है और हम दोनो आज तक इस एक मुद्दे पर एकमत नहीं हैं.......
mota bhai, aap to sharif aadmi the, kis chakkar me aa gaye. apki to log ijaat karte hai, kahe fate me tang fasa rahe ho.
anil bhai,
bajarwad na hoga to sare patrakaar berojgaar ho jayenge, kyoun roji roti ki jugad ko hatana chahte ho,
bajar na ho to bechara akhbaar or bechare akhbaarnavees. lala to apna akhbaar jaroor hi band kar lega.
rahi baat bhadaas ki to ye kathan aap ka sat pratisat satya hai, are kahin to becharon ko jagah do jahan unki kopy ki koi maa bahan ek na kar sake.
jai jai bhadaas
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