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21.4.08

वो लडकी
दिल्ली की एक लडकी,
जो रोज आफिस जाती है,
अपने टाईम पर
और रोज कुछ मनचले
कसते है उस पर फ़ब्तिया.
पर वो मनचले
ये नहीं जानते
की सैंकडो मील दूर
उसके घर वाराणसी में
दो जोडी बूढी आंखे
याद करती है अपनी बेटी को
हर महीने की दस तारीख को
पीयूष की स्कूल फीस
सविता का दहेज
सभी के सपनो में बुन जाता है
एक और नया धागा
लेकिन वहां दिल्ली में
एक दिन वही लडकी
मिल गई उन मनचलों को अकेले
रात को दफ़्तर के लौटते समय
और फिर
बचाओ.............
अब कोई नहीं करता इंतज़ार
दस तारीख का
अब सभी के सपनों मे
लग गई है कई गांठे.........

7 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

सच बयान किया है। ये हालात बदलने चाहिए। बदल भी रहे हैं। दिल्ली की लड़कियां आत्मविश्वास से भरपूर हैं। वे अपनी जंग लड़ रही हैं। हमें उन्हें हर हाल मे सपोर्ट करते रहना है।

Anonymous said...

मेरी कविता को सच मानने के धन्यवाद...पर यशवंत जी सच मानिये मेरी ये कविता कल्पना नहीं है....इस घटना को मैने बहुत करीब से महसूस किया है क्योकी की वाराणसी की जिस लडकी का मैने ज़िक्र अपनी कविता में किया, वो- जब जिवित थी- तब मेरी अच्ची दोस्तो में थी....

Anonymous said...

भाई बहुत दुखी करने वाला है, मगर यशवंत दादा ने सत्य कहा हमें सपोर्ट करना होगा,

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

आलोक जी,कभी ऐसा होगा कि ये कड़वाहटें शब्दों से निकल कर हमारी दूसरी अभिव्यक्तियों में आ पाएंगी तो बदलाव नजदीक ही होगा आसपास...

अबरार अहमद said...

दिल को छू गई यह सच्चाई।

KAMLABHANDARI said...

bahut dard bhari kavita hai .jish tarha aapne apni dost ke jeevan ko uske dard ko baya kiya hai kabile taarif hai .
sachmuch isme koi sak nahi ki aap unke sacche mitr the.tabhi to aap uske dard to pahchaan sake.

अर्चना राजहंस मधुकर said...

आंख भरते- भरते रह गई...यही इस कविता की सार्थकता भी है... दरअसल ये बात कई लड़कियों की हैं...लेकिन जिस लड़की का जिक्र आपने किया है उनकी अगर इस तरह से मौत हो गई है तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ हो ही नहीं सकता...