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8.1.09

आसमां में भी सुराख हो सकता है, एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों

भड़ास पर पोस्ट की गई एक टिप्पणी ने काफी दिनों से सुप्त पड़ी मेरे लेखन की इच्छा को जाग्रत कर दिया। यह टिप्पणी बहुत से ऐसे लोगों के लिए एक सजग संदेश है जो सिस्टम को कोसते नहीं थकते। अगर कुछ करने की जिजिविषा हो तो पहाड़ों को तोड़कर भी रास्ते बनाए जा सकते है, उसकी मिसाल है यूपी के बहराइच जिले में सूचना के अधिकार का सामाजिक चेतना के लिए किया सार्थक प्रयोग, यंग हिन्दुस्तान के इस प्रयास ने अनपढ़ मजदूरों को शराब के खिलाफ जो प्रेरणा दी है, वह काबिले तारीफ है। कुछ और ऐसे ही सामाजिक मुद्दे है जिन पर हम सिस्टम के सही न होने की बात कहकर पल्ला झाड़ लेते है, बढ़ती जनसंख्या भी कुछ ऐसा ही विषय है। लोकल ट्रेन में सफर करते हुए रोजाना न जाने कई ऐसे वाकये मेरे सामने पेश आते है, लेकिन उस वक्त मेरी मानसिकता भी एक आम इंसान की तरह सोचते हुए इसे सिस्टम पर लाद कर कन्नी काट जाती है। लोकल ट्रेनों में भीड़ होना आम बात है और इसके लिए हम रेलवे को दोष मढ़ते नहीं थकते, लेकिन इस भीड़ को लेकर थोड़ा सा सोचा जाए तो क्या हम ही इस भीड़ के लिए बराबर के दोषी नहीं है। लोकल ट्रेनों में चलने वाले में अधिकांश तबका ऐसा होता है जो टिकट लेने की स्थिति में नहीं होता और इस वर्ग में अधिकांश लोग ऐसे होते है, जिनके साथ कम से कम चार -पांच नन्हे-मुन्ने बच्चे होते है और यह बच्चे ट्रेन में चलने वाले दैनिक यात्रियों की हिकारत का निशाना बनते है, क्योंकि न तो बेचारे साफ -सुथरे होते और न ही इनके सरपरस्त इनके लिए कुछ कर पाने की स्थिति में होते है। परिवार कल्याण की जो योजनाएं सरकार बनाती है, उन योजनाओं का झूठा सच यहां हर दिन देखने को मिलता है। खैर ये बात छोड़ दी जाए तो क्या सूचना के अधिकार के तहत इन लोगों को बड़े परिवार के खतरे से आगाह नहीं किया जा सकता है, हम ये कर सकते है और इसके लिए पहल हमको ही करनी होगी।

2 comments:

sanjeev persai said...

बिल्कुल सही कहा है आपने,
यदि हर समस्या के लिए तंत्र को जिम्मेदार ठहराने का ज़माना गया अपने अन्दर भी झाँककर देखना होगा
संजीव परसाई

Dev said...

बिल्कुल सही कहा है आपने,दिल से एक पत्थर तो उछालो यारो ....