शिरीष खरे
उस्मानाबाद। हर साल हजारों मजदूर सीमावर्ती इलाकों में गन्ना काटने के लिए जाते हैं। नंवबर से जून के बीच बच्चे भी बड़ों के साथ पलायन करते हैं। यही समय स्कूल की पढ़ाई के लिए खास होता है। लेकिन इसी समय गांव के गांव खाली हो जाने से स्कूल भी खाली पड़ जाते हैं। ऐसे में चीनी पट्टी के नाम से मशहूर मराठवाड़ा के कई बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते हैं।
चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ और ‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ ने कलंब तहसील के 19 गांवों में सर्वे किया और पाया कि 6-14 साल के कुल 1,555 बच्चों में से 342 स्कूल नहीं जाते। इसमें 193 लड़कियां हैं। इसके अलावा ड्रापआउट बच्चों की संख्या 213 है। इसमें से भी 89 लड़कियां हैं। यहां एक साल में 19 बाल-विवाह के मामले भी उजागर हुए हैं। इन संस्थाओं ने 19 गांवों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने की रुपरेखा तैयार की है। इससे एक छोटे से हिस्से में बदलाव की आशा बंधी है। लेकिन पलायन के इस संकट ने पूरे मराठवाड़ा को घेर रखा है।
‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ के बजरंग टाटे ने बताया- ‘‘पलायन करने वाले मजदूरों में ज्यादातर दलित और बंजारा जनजाति से होते हैं। इनके पास रोजगार के स्थायी साधन नहीं होते। इसलिए जब यह लोग बाहर निकलते हैं तो पंचायत की कई योजनाओं से छूट जाते हैं। सबसे ज्यादा नुकसान तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का होता है। खेतों में जाने वाले इन बच्चों का खूब शोषण होता है।’’
महादेव बस्ती की शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित ने बताया कि- ‘‘परीक्षा की तारीख नजदीक आते-आते तो ज्यादातर आदिवासियों के घरों में ताले लटकने लगते हैं। इससे पूरे इलाके में शिक्षा का स्तर बहुत नीचे चला जाता है। बच्चों की अनुपस्थिति के कारण शिक्षकों को कोर्स पूरा करने में मुश्किल होती है। जंगली क्षेत्र के कम-से-कम 75 स्कूलों में तो बच्चों का अकाल पड़ जाता है। परीक्षा के दिन तक 100 में से कम-से-कम 40 बच्चे गायब हो जाते हैं।’’ मजदूरों के साथ यह बच्चे 200 से 700 किलोमीटर दूर याने नगर, पुणे, कोल्हापर और कर्नाटक के बिदर, आलूमटी तथा बेड़गांव के इलाकों तक जाते हैं। यह परिवार गन्ने के खेतों में ही अस्थायी बस्ती बनाकर रहते हैं। काम के मुताबिक यह अपने ठिकाने बदलते रहते हैं।
धाराशिव चीनी मिल, चैरारूवली’ के लिए गन्ना काटने वाले मजदूरों की एक बस्ती को देखने का मौका मिला। पन्नी, कपड़ा और लकड़ियों की मदद से कुल 12 घर खड़े हैं। सभी घर एक-दूसरे से अलग-थलग हैं। 13 साल की नीरा शिंदे ने बताया- ‘‘घर में एक ही कमरा है। इस कमरे में पैर पसारने भर की जगह है। धूप के दिनों में पन्नी के गर्म होने से बहुत गर्मी लगती है। यह घर हमें ठण्ड और पानी से भी नहीं बचा पाते। बरसात में तो पूरा खेत कीचड़ से भर जाता है।’’ 12 साल के रामदास गायकबाड़ ने बताया- ‘‘इस उबड़-खाबड खेत में न कोई गली है, न खेलने का मैदान। पीने का पानी भी हम 2 किलोमीटर दूर से लाते हैं। सभी खुले में नहाते हैं। रात को लाइट नहीं रहने से घुप्प अंधेरा छा जाता है। हम सुबह का इंतजार करते हैं।’’ चीनी मिलों से ट्रालियों का आना-जाना देर रात तक चलता रहता है। इस दौरान कई बच्चे गन्नों को बांधने और उन्हें ट्रालियों में भरने के कामों में शामिल हो जाते हैं।
14 साल की अंगुरी मेहतो ने कहा- ‘‘मुझे अपने 3 छोटे भाईयों को संभालने में बहुत मुश्किल होती है। कंधों पर रखे-रखे शरीर दुखने लगता है। सुबह से शाम तक घर के काम भी करती हूं।’’ यहां 6 से 14 साल के बच्चे-बच्चियां घरों में खाना बनाने और सफाई का काम करते हैं। ऐसी ही दूसरी बच्ची इशाका गोरे ने बताया कि- ‘‘मैं अभी तीसरी में । दूसरी में पहले नम्बर पर आई थी। यहां से जाने के बाद परीक्षा देना है। फिर चौथी बैठूंगी।’’ उसे नहीं मालूम कि अब स्कूल की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं। उसका परिवार सागली जिले के कराठ गांव से आया है। इशाका के पिता याविक गोरे का मानना है कि- ‘‘यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो 4-5 साल में शादी करनी ही है। फिर अपने पति के साथ जोड़ा बनाकर काम करेगी।’’ यहां ज्यादातर लोग अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही कर देते हैं। इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़े रहेंगे, आमदनी उतनी ही अधिक होगी। ज्यादातर रिश्तेदारियां भी काम की जगहों पर हो जाती हैं। इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में सामने आती है।
दूसरी बस्तियों में भी बच्चों से जुड़ी कई दिक्कते एक समान पायी गई, जैसे- 1) बढ़ते बच्चों को पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिलता। इससे कुपोषण के मामलों में बढ़ोतरी होती है। 2) खेतों में बच्चे सबसे ज्यादा सर्दी के मौसम में बीमार होते हैं। 3) गन्ना काटते वक्त कोयना जैसे धारदार हथियार लगने, सांप काटने और बावड़ियों में गिरने की घटनाएं होती रहती हैं। 4) ऐसे खेतों से ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र’ करीब 15-20 किलोमीटर दूर होते हैं। इसलिए इमरजेंसी के दौरान अनहोनी की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
‘शंभु महाराज चीनी मिल, हवरगांव’ के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे ने बताया- ‘‘हमारे बच्चे हमारे साथ होकर भी दूर हैं। यह कभी चिड़चिड़ाते हैं, कभी चुपचाप हो जाते हैं। ऐसे माहौल में बच्चों का दिमाग बिगड़ जाता है। यह खेलने-पढ़ने के दिनों में भी बहुत काम करते हैं। इन्हें पढ़ाई का कोई तनाव नहीं है। यह तो भूख की मजबूरी से स्कूल नहीं जा पाते।’’
केन्द्र सरकार 2010 तक देश के सभी बच्चों को स्कूल ले जाना चाहती है। लेकिन 11वीं योजना में साफ तौर से कहा गया है कि 7 प्रतिशत बच्चों को स्कूल से जोड़ना मुश्किल हैं। यह बच्चे सामाजिक और आर्थिक कारणों से सरकार की पहुंच से दूर हैं। यूनेस्को ने भी ‘एजुकेशन फार आल मानिटिरिंग, 2007 की रिपोर्ट में कहा है कि भारत, पाकिस्तान और नाईजीरिया में दुनिया के 27 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। दुनिया के 101 देशों की तरह भारत भी पूर्ण साक्षरता की दौड़ से बाहर है। यूनेस्को के मुताबिक भारत के 70 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। दुनिया के 17 देशों की तरह भारत में प्राइमरी स्कूलों से लड़कियों का पलायन ज्यादा हो रहा है। आखिरी जनगणना के हिसाब से 49.46 करोड़ महिलाओं में से 22.96 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ मानता है कि भारत में 5 से 9 साल की 53 प्रतिशत लड़कियां पढ़ नहीं पाती।
भारत-सरकार ने 600 में से 597 जिलों को पूर्ण साक्षरता अभियान का हिस्सा बनाया है। उसके पास कई योजनाएं भी हैं जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कालरशिप देना, मिड-डे-मिल चलाना और ब्रिज कोर्स तैयार करना। बीते 3 सालों में प्राइमरी स्तर पर 2,000 से भी अधिक आवासीय स्कूल खोले गए। लड़कियों के लिए 31,000 आदर्श स्कूल भी बने। लेकिन मराठवाड़ा जैसे इलाकों से पलायन करने वाले बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से नहीं जुड़ सके।
पलायन, समाज की भीतरी परतों से जुड़ा है। विकास की असंतुलित रतार के कारण यह समस्या विकराल हो चुकी है। इसे रोजगार के स्थायी साधन और भूमि सुधार की नीतियों की मदद से रोकना होगा। जब तक इंसान की मूलभूत जरूरत पूरी नहीं होगी तब तक बच्चों के भविष्य पर संकट के बादल मडराते रहेंगे।
उस्मानाबाद। हर साल हजारों मजदूर सीमावर्ती इलाकों में गन्ना काटने के लिए जाते हैं। नंवबर से जून के बीच बच्चे भी बड़ों के साथ पलायन करते हैं। यही समय स्कूल की पढ़ाई के लिए खास होता है। लेकिन इसी समय गांव के गांव खाली हो जाने से स्कूल भी खाली पड़ जाते हैं। ऐसे में चीनी पट्टी के नाम से मशहूर मराठवाड़ा के कई बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते हैं।
चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ और ‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ ने कलंब तहसील के 19 गांवों में सर्वे किया और पाया कि 6-14 साल के कुल 1,555 बच्चों में से 342 स्कूल नहीं जाते। इसमें 193 लड़कियां हैं। इसके अलावा ड्रापआउट बच्चों की संख्या 213 है। इसमें से भी 89 लड़कियां हैं। यहां एक साल में 19 बाल-विवाह के मामले भी उजागर हुए हैं। इन संस्थाओं ने 19 गांवों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने की रुपरेखा तैयार की है। इससे एक छोटे से हिस्से में बदलाव की आशा बंधी है। लेकिन पलायन के इस संकट ने पूरे मराठवाड़ा को घेर रखा है।
‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ के बजरंग टाटे ने बताया- ‘‘पलायन करने वाले मजदूरों में ज्यादातर दलित और बंजारा जनजाति से होते हैं। इनके पास रोजगार के स्थायी साधन नहीं होते। इसलिए जब यह लोग बाहर निकलते हैं तो पंचायत की कई योजनाओं से छूट जाते हैं। सबसे ज्यादा नुकसान तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का होता है। खेतों में जाने वाले इन बच्चों का खूब शोषण होता है।’’
महादेव बस्ती की शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित ने बताया कि- ‘‘परीक्षा की तारीख नजदीक आते-आते तो ज्यादातर आदिवासियों के घरों में ताले लटकने लगते हैं। इससे पूरे इलाके में शिक्षा का स्तर बहुत नीचे चला जाता है। बच्चों की अनुपस्थिति के कारण शिक्षकों को कोर्स पूरा करने में मुश्किल होती है। जंगली क्षेत्र के कम-से-कम 75 स्कूलों में तो बच्चों का अकाल पड़ जाता है। परीक्षा के दिन तक 100 में से कम-से-कम 40 बच्चे गायब हो जाते हैं।’’ मजदूरों के साथ यह बच्चे 200 से 700 किलोमीटर दूर याने नगर, पुणे, कोल्हापर और कर्नाटक के बिदर, आलूमटी तथा बेड़गांव के इलाकों तक जाते हैं। यह परिवार गन्ने के खेतों में ही अस्थायी बस्ती बनाकर रहते हैं। काम के मुताबिक यह अपने ठिकाने बदलते रहते हैं।
धाराशिव चीनी मिल, चैरारूवली’ के लिए गन्ना काटने वाले मजदूरों की एक बस्ती को देखने का मौका मिला। पन्नी, कपड़ा और लकड़ियों की मदद से कुल 12 घर खड़े हैं। सभी घर एक-दूसरे से अलग-थलग हैं। 13 साल की नीरा शिंदे ने बताया- ‘‘घर में एक ही कमरा है। इस कमरे में पैर पसारने भर की जगह है। धूप के दिनों में पन्नी के गर्म होने से बहुत गर्मी लगती है। यह घर हमें ठण्ड और पानी से भी नहीं बचा पाते। बरसात में तो पूरा खेत कीचड़ से भर जाता है।’’ 12 साल के रामदास गायकबाड़ ने बताया- ‘‘इस उबड़-खाबड खेत में न कोई गली है, न खेलने का मैदान। पीने का पानी भी हम 2 किलोमीटर दूर से लाते हैं। सभी खुले में नहाते हैं। रात को लाइट नहीं रहने से घुप्प अंधेरा छा जाता है। हम सुबह का इंतजार करते हैं।’’ चीनी मिलों से ट्रालियों का आना-जाना देर रात तक चलता रहता है। इस दौरान कई बच्चे गन्नों को बांधने और उन्हें ट्रालियों में भरने के कामों में शामिल हो जाते हैं।
14 साल की अंगुरी मेहतो ने कहा- ‘‘मुझे अपने 3 छोटे भाईयों को संभालने में बहुत मुश्किल होती है। कंधों पर रखे-रखे शरीर दुखने लगता है। सुबह से शाम तक घर के काम भी करती हूं।’’ यहां 6 से 14 साल के बच्चे-बच्चियां घरों में खाना बनाने और सफाई का काम करते हैं। ऐसी ही दूसरी बच्ची इशाका गोरे ने बताया कि- ‘‘मैं अभी तीसरी में । दूसरी में पहले नम्बर पर आई थी। यहां से जाने के बाद परीक्षा देना है। फिर चौथी बैठूंगी।’’ उसे नहीं मालूम कि अब स्कूल की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं। उसका परिवार सागली जिले के कराठ गांव से आया है। इशाका के पिता याविक गोरे का मानना है कि- ‘‘यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो 4-5 साल में शादी करनी ही है। फिर अपने पति के साथ जोड़ा बनाकर काम करेगी।’’ यहां ज्यादातर लोग अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही कर देते हैं। इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़े रहेंगे, आमदनी उतनी ही अधिक होगी। ज्यादातर रिश्तेदारियां भी काम की जगहों पर हो जाती हैं। इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में सामने आती है।
दूसरी बस्तियों में भी बच्चों से जुड़ी कई दिक्कते एक समान पायी गई, जैसे- 1) बढ़ते बच्चों को पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिलता। इससे कुपोषण के मामलों में बढ़ोतरी होती है। 2) खेतों में बच्चे सबसे ज्यादा सर्दी के मौसम में बीमार होते हैं। 3) गन्ना काटते वक्त कोयना जैसे धारदार हथियार लगने, सांप काटने और बावड़ियों में गिरने की घटनाएं होती रहती हैं। 4) ऐसे खेतों से ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र’ करीब 15-20 किलोमीटर दूर होते हैं। इसलिए इमरजेंसी के दौरान अनहोनी की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
‘शंभु महाराज चीनी मिल, हवरगांव’ के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे ने बताया- ‘‘हमारे बच्चे हमारे साथ होकर भी दूर हैं। यह कभी चिड़चिड़ाते हैं, कभी चुपचाप हो जाते हैं। ऐसे माहौल में बच्चों का दिमाग बिगड़ जाता है। यह खेलने-पढ़ने के दिनों में भी बहुत काम करते हैं। इन्हें पढ़ाई का कोई तनाव नहीं है। यह तो भूख की मजबूरी से स्कूल नहीं जा पाते।’’
केन्द्र सरकार 2010 तक देश के सभी बच्चों को स्कूल ले जाना चाहती है। लेकिन 11वीं योजना में साफ तौर से कहा गया है कि 7 प्रतिशत बच्चों को स्कूल से जोड़ना मुश्किल हैं। यह बच्चे सामाजिक और आर्थिक कारणों से सरकार की पहुंच से दूर हैं। यूनेस्को ने भी ‘एजुकेशन फार आल मानिटिरिंग, 2007 की रिपोर्ट में कहा है कि भारत, पाकिस्तान और नाईजीरिया में दुनिया के 27 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। दुनिया के 101 देशों की तरह भारत भी पूर्ण साक्षरता की दौड़ से बाहर है। यूनेस्को के मुताबिक भारत के 70 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। दुनिया के 17 देशों की तरह भारत में प्राइमरी स्कूलों से लड़कियों का पलायन ज्यादा हो रहा है। आखिरी जनगणना के हिसाब से 49.46 करोड़ महिलाओं में से 22.96 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ मानता है कि भारत में 5 से 9 साल की 53 प्रतिशत लड़कियां पढ़ नहीं पाती।
भारत-सरकार ने 600 में से 597 जिलों को पूर्ण साक्षरता अभियान का हिस्सा बनाया है। उसके पास कई योजनाएं भी हैं जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कालरशिप देना, मिड-डे-मिल चलाना और ब्रिज कोर्स तैयार करना। बीते 3 सालों में प्राइमरी स्तर पर 2,000 से भी अधिक आवासीय स्कूल खोले गए। लड़कियों के लिए 31,000 आदर्श स्कूल भी बने। लेकिन मराठवाड़ा जैसे इलाकों से पलायन करने वाले बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से नहीं जुड़ सके।
पलायन, समाज की भीतरी परतों से जुड़ा है। विकास की असंतुलित रतार के कारण यह समस्या विकराल हो चुकी है। इसे रोजगार के स्थायी साधन और भूमि सुधार की नीतियों की मदद से रोकना होगा। जब तक इंसान की मूलभूत जरूरत पूरी नहीं होगी तब तक बच्चों के भविष्य पर संकट के बादल मडराते रहेंगे।
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