शिरीष खरे
आज से करीब 15 साल पहले, जब मीडिया की पहुंच महज महानगरों तक सीमित थी तब इसके विस्तार पर जोर दिया जाता था। अब हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय समाचार माध्यमों के कारण खबरों की संख्या और पहुंच, दोनों ही तेजी से बढ़ी हैं जिससे स्थानीय खबरों को महत्व मिला। इसके साथ ही मीडिया के स्वरुप में विकृतियां भी आयी, जैसे-किसी छोटी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर बताकर पेश करना, सनसनीखेज या मसाला शैली में बढ़ोत्तरी और खबरों में भाषाई हमला का तेज होना आदि। कई बार संवेदनशीलता की ऐसी अधिकता त्रासदी को कमजोर बनाती है। जब मीडिया सीमित था तब उस पर आम आदमी का भरोसा ज्यादा था। आज खबरों में अंतरविरोध बढ़ने के साथ ही मीडिया की विश्वसनीयता भी घटने लगी है। एक ही खबर को जांचने के लिए लोगों द्वारा अलग-अलग माध्यम या चैनल बदलना इसका प्रमुख कारण है। इन दिनों खबरों के चुनाव और प्रस्तुतीकरण में अहम बातें या तो उजागर नही होती, यदि होती भी हैं तो अमर्यादित भाषाई हमला विकृति पैदा करता है। दूसरी तरफ, समाचारपत्रों में ‘संस्करणों’ का प्रचलन बढ़ने से अधिकतर खबरों का अपनी क्षेत्रीयता में सिमट जाना एक दुखद स्थिति है। इस प्रकार, एक क्षेत्र की खबर दूसरे क्षेत्र के लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं और आसपास की जनता में खबरों का आपसी संबंध रूक गया है। यही कारण मीडिया के वास्तविक विस्तार पर प्रश्नचिन्ह भी लगाता है। मीडिया के भीतर भी मुख्यतः मीडिया की व्यावसायिकता को लेकर ही चर्चाएं हो रही हैं। एक वर्ग व्यवसायिकरण से परहेज नहीं करता। इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं, जैसे-‘उदारीकरण के कारण जब पूरा परिदृश्य ही बदल रहा हो तब मीडिया में परिवर्तन आना स्वभाविक ही है’, ‘सभी क्षेत्रों की तरह अब मीडिया को भी कमाने दिया जाए’, ‘जहां तक नैतिकता का सवाल है तो इसमें भी केवल मीडिया से ही उम्मीद नहीं करनी चाहिए’ इत्यादि। दरअसल, मीडिया के व्यवसायीकरण ने उसका फैलाव किया और इसी फैलाव ने मीडिया को नियंत्रण से बाहर कर दिया। सिक्के का दूसरा पक्ष आदर्शवाद पर टिका है। प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है इसलिए उसकी अपनी जिम्मदारियां भी हैं। लोकत्रंत के पहले तीन स्तम्भों में से एक भी बाजार से सीधा नहीं जुड़ा है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को बाजार से दूर रखने का जो भी कारण हो वहीं कारण मीडिया पर भी लागू होना चाहिए। अब विकास, विज्ञान, पर्यावरण और लोगों के अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर समाचार और कार्यक्रम गायब होने लगे है। इसके बचाव में अक्सर कहा जाता है कि जो देखा, सुना या पढ़ा जा रहा है दर्शक, पाठक या श्रोता वही तो चाहता है। लेकिन अभी तक लोगों की रूचियों को जानने का न तो कोई पुख्ता अध्ययन हुआ है और न ही सर्वेक्षण, फिर भी इस कथन को सच मान लिया गया है। आजादी के बाद समाचार पत्रों में पूंजी का उपयोग बढ़ा और पत्रों की संख्या भी। पहले मात्र समाचारपत्रों को बेचकर उनका प्रकाशन कराते रहना मुश्किल था इसलिए विज्ञापनों का प्रयोग प्रचलन में आया। बाद में प्रेस कमीशन ने भी समाचार और विज्ञापनों का अनुपात 60/40 रख दिया। तब विज्ञापन लागतों की वापसी और आय का मुख्य साधन बन गए। धीरे-धीरे समाचार पत्रों में पूंजी की अधिकता बढ़ने से व्यवसायिकों का प्रवेश बढ़ने लगा। पहले यह उनका सहायक व्यवसाय था, जो बाद में मुख्य व्यवसाय बन गया। अब समाचार पत्र, समाचार के अलावा उत्पाद बेचने का सशक्त माध्यम भी बने। आपातकाल की समाप्ति के बाद प्रेस व्यवसायिकों को लगा कि यदि सरकार की मामूली आपत्ति पत्रकारों पर दबाव बना सकती है तो उनके हाथों में तो और बड़ा हथियार अर्थात रोजगार है। उन्होंने अपनी हितो को ध्यान में रखकर समाचारों को प्रकाश में लाने और छिपाने के निर्देश देने शुरू कर दिए। सामान्यतः इलेक्ट्रानिक मीडिया की तुलना में समाचार-पत्र सामग्री की गुणवत्ता और जनता के प्रति अपनी जवाबदारी को लेकर बेहतर स्थिति में बताया जाता है। प्रिंट की तुलना में इलेक्ट्रानिक मीडिया नया है और इसकी कोई सामाजिक पृष्ठभूमि नहीं रही। आकाशवाणी के बाद क्रमशः दूरदर्शन, केबल, चैबीस घण्टों के न्यूज चैनल और इंटनरेट वगैरह आए। दूरदर्शन का सरकार के अधीन होने से उसकी अपनी सीमाएं थीं, अक्सर इन सीमाओं में बंधे रहने के कारण उसकी आलोचनाएं होती। जब-जब दूरदर्शन पर विरोध के स्वर को न दबाने के आरोप लगता तब-तब इसे एक स्वायत्त संस्था बनाने पर विमर्श होता। लेकिन दूरदर्शन के कार्यक्रमों का स्तर था और विज्ञापनों की सीमा भी। इस बीच सूचना क्रांति का जो युग आया उसने मीडिया को बाजार का महज उपकरण बना दिया। आजकल इन्हीं विचारशून्य सूचनाओं पर समाज को दिग्भम्रित करने का आरोप लगाया जा रहा है। समाज और बाजार के बीच मीडिया एक माध्यम होता है। मीडिया से ही बाजार और समाज आपस में एक-दूसरे से बंधे हैं। मीडिया में प्रसारित किसी उत्पाद का विज्ञापन दिखाने से उसकी विश्वसनीयता बढ़ती है। इसीलिए मीडिया की जिम्मेदारी दोहरी हो जाना चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं दिखता। दरअसल, पश्चिमी देशों से मुकाबला और उसके असर के कारण भारत में स्थितियां तेजी से बदली हैं। अब हर वस्तु का बाजार है। बाजार में उपभोक्तावादी संस्कृति का मानवीय संवेदनाओं से मेल बैठना मुश्किल है। बाजारों को तैयार करने में पश्चिम से प्रभावित मीडिया ने आवश्यक उपकरण का काम किया। इस मीडिया का मकसद सारी दुनिया को ‘एक बाजार के लिए एक सभ्यता’ को प्रोत्साहित करना रहा ताकि उत्पादित माल को बेचना आसान हो सके। इस आधार पर आधुनिक मीडिया का विस्तार भी होना ही था। मीडिया के विकृति से चिंतित कुछ जन नए विकल्पों की बात करते हैं। मगर विकल्प कोई भी हो, बाजार के प्रभाव से बचना मुश्किल होगा। कुछ का मत है कि आधुनिक मीडिया ने पारंपरिक और लोक माध्यमों को कमजोर बनाया है जबकि आज का बाजार इन्हीं माध्यमों से अपनी उत्पादनों को बेचने की क्षमता भी रखता है। बात चाहे सामुदायिक रेडियो की हो या वेब दुनिया जैसे नए विकल्पों की, सभी इन दिनों मनोरंजन द्वारा और मंनोरंजन के लिए हाजिर हैं।
इन दिनों विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाचार माध्यमों पर सेक्स, अपराध, अंधविश्वास आदि नकारात्मक प्रवृतियों को रोकने के लिए सरकार से कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाने की मांग की जा रही है। ऐसी संस्थाओं का मानना है कि आजकल मीडिया में सामग्री का चयन सामाजिक सरोकारों के आधार पर नहीं बल्कि बाजार की विशुद्ध शक्तियों द्वारा निर्धारित होता हैं। लेकिन मीडिया की आलोचना का मतलब मीडिया के विरोध से नहीं बल्कि मीडिया में सुधार संबंधी चिंतन से होना चाहिए। आज हर समाचार माध्यम अपने लक्ष्य समूह तक अधिक से अधिक पहुंचना चाहता है तो यह ठीक भी है। लेकिन अगर उस लक्ष्य समूह की प्राथमिक समस्याओं को ध्यान में रखने की जरूरत महसूस हो रही है तो इस पर भी विचार करना चाहिए। बाजार से मीडिया को पूर्णतः अलग-थलग करने की बजाय इसे बाजार के दुष्प्रभावों से बचाना आसान होगा। इसीलिए मीडिया की एक सार्थक नीति बनाने की बात में संभावना दिखती है। हांलाकि यह बहुत संवेदनशील मांग है क्योंकि प्रेस की अभिव्यक्ति पर रोक लगाने की लम्बी कहानियां भी हैं। इस नीति का लक्ष्य मीडिया पर प्रतिबंधों से नही बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियों के संदर्भ में उसकी कारगर रणनीति से होना चाहिए। इसलिए मीडिया की नीति को मीडिया के लोगों द्वारा बनाने से इसकी लोकतांत्रिक संरचना ही मजबूत होगी। आज भी मीडिया में असंख्य लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना चाहते हैं लेकिन जवाबदेही की कोई स्पष्ट रुपरेखा न होने से वह अपनी भूमिका का निर्वाहन नहीं कर पाते। आप अपनी प्रतिक्रिया Shirish2410@gmail.com पर भेज सकते है
इन दिनों विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाचार माध्यमों पर सेक्स, अपराध, अंधविश्वास आदि नकारात्मक प्रवृतियों को रोकने के लिए सरकार से कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाने की मांग की जा रही है। ऐसी संस्थाओं का मानना है कि आजकल मीडिया में सामग्री का चयन सामाजिक सरोकारों के आधार पर नहीं बल्कि बाजार की विशुद्ध शक्तियों द्वारा निर्धारित होता हैं। लेकिन मीडिया की आलोचना का मतलब मीडिया के विरोध से नहीं बल्कि मीडिया में सुधार संबंधी चिंतन से होना चाहिए। आज हर समाचार माध्यम अपने लक्ष्य समूह तक अधिक से अधिक पहुंचना चाहता है तो यह ठीक भी है। लेकिन अगर उस लक्ष्य समूह की प्राथमिक समस्याओं को ध्यान में रखने की जरूरत महसूस हो रही है तो इस पर भी विचार करना चाहिए। बाजार से मीडिया को पूर्णतः अलग-थलग करने की बजाय इसे बाजार के दुष्प्रभावों से बचाना आसान होगा। इसीलिए मीडिया की एक सार्थक नीति बनाने की बात में संभावना दिखती है। हांलाकि यह बहुत संवेदनशील मांग है क्योंकि प्रेस की अभिव्यक्ति पर रोक लगाने की लम्बी कहानियां भी हैं। इस नीति का लक्ष्य मीडिया पर प्रतिबंधों से नही बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियों के संदर्भ में उसकी कारगर रणनीति से होना चाहिए। इसलिए मीडिया की नीति को मीडिया के लोगों द्वारा बनाने से इसकी लोकतांत्रिक संरचना ही मजबूत होगी। आज भी मीडिया में असंख्य लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना चाहते हैं लेकिन जवाबदेही की कोई स्पष्ट रुपरेखा न होने से वह अपनी भूमिका का निर्वाहन नहीं कर पाते। आप अपनी प्रतिक्रिया Shirish2410@gmail.com पर भेज सकते है
1 comment:
achhi aur sateek va saarthak post k liye badhai
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