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12.8.09

वक्त और मैं

वक्त के चेहरे पे
शिकन ये कैसी दिखने लगी
थम गया वक्त
या हो चला है अब बुढ़ा
झुर्रियां चेहरे की
बिस्तर की
सिलवटों सी लगती है
सोचता हूं
शायद उसे
आजतक पता ही नहीं
आज लंगड़ाता हुआ
वक्त जब सुबह मुझसे मिला
दर्द पर उसके चेहरे पर
जरा सी भी नहीं
गिर रहा था
कई जगह से खूं का कतरा
पर उसके चेहरे पे मुस्कान
कल की तरह थी
उसने मुझसे मिलाई हाथ
गर्मजोशी से
वो था
मुरझाया सा
हाथ मेरे ठंढे थे
उसके चेहरे पे था मुस्कान
मैं उदास सा था
वो था घायल
तड़प रहा था मैं
क्योंकि उम्मीद थी
उसे
वक्त बदलेगा
जरुर बदलेगा

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