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8.10.09

निराशा


जब बढ़ते हैं कदम मंजिल ओर, घुस जाती है ये मन में बनकर चोर

चोरजीवन में काली छाया बनकर, बन जाती है घटा घनघोर

देती है जीवन को चुनौति, करती है जीवन में कटौती

होती है ये परीक्षा का प्रतिबिंब, करा देती है प्रजलपना

स्वरूप निराशा का ये निराला है, इसमें फंस जाओ तो समझो मुंह काला है

निश्चित ही इसे एक बुरा क्षण मानो, लेकिन देखो, समझो जानो और पहचानो

पहचानने पर पता लगेगा तुमको, ये कुछ नहीं छल रही है तुमको

इससे पहले कि ये छल ले तुमको, उठाओ लाठी दूर भगाओ इसको

ना भागे तो निठल्लापन अपनाओ, निराशा नामक इस धूर्तनी को दूर भगाओ------

सौरभ दुबे --09210985314

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