मीडिया के नए अनुसंधान अमरीकी मीडिया के अनेक मिथों को तोडते हैं। मीडिया खबरों का स्तर गिरा है। अधूरी,अपूर्ण, विभ्रमपूर्ण खबरें प्रकाशित होती है। विगत बीस सालों में समाचारों का स्तर तेजी से गिरा है। यह निष्कर्ष है 'पेव रिसर्च सेंटर' के ताजा सर्वे का। 'पेव रिसर्च सेंटर' (PewResearchCente) ने 1,506 लोगों के साक्षात्कारों के आधार पर यह सर्वे तैयार किया है। 63 प्रतिशत लोगों का मानना है समाचारपत्रों में प्रकाशित समाचार लेख अधूरे होते हैं। मात्र 29 प्रतिशत लोगों का मानना था कि मीडिया ''सीधे तथ्यों'' को संप्रेषित करता है। सामाजिक -राजनीतिक सवालों पर मीडिया घराने एक ही किस्म के नजरिए का पक्ष लेते हैं,ऐसा 74 प्रतिशत लोगों का मानना था। कुछ लोगों का मानना था ताकतवर लोगों के हितों का भी मीडिया पर प्रभाव देखा गया है। सन् 2007 के बाद के दो सालों में 'पेव' के पिछले सर्वे के निष्कर्ष और भी नकारात्मक दिशा में गए हैं। उल्लेखनीय है सन् 2002 से यह संस्थान सर्वे प्रकाशित करता रहा है और इसके सर्वे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक माने जाते हैं। सर्वे के अनुसार अमरीकी मीडिया दलीय पक्षधरता के आधार पर पूरी तरह बंटा हुआ है।
सर्वे के अनुसार आज भी 96 प्रतिशत से ज्यादा लोग मुद्रित अखबार के जरिए ही खबरें पढते हैं। तकरीबन 3 प्रतिशत से ज्यादा लोग ऑन लाइन अखबार पढते हैं। प्रसिद्ध मीडिया सर्वे कंपनी 'नेल्सन' के अनुसार सन् 2008 में दैनिक अखबारों को ऑन लाइन पढने वालों की संख्या प्रति माह 3.2 विलियन पन्ने थी। अमेरिकी दैनिक अखबारों के द्वारा प्रतिमाह ऑनलाइन और मुद्रित रूप में 90.3 विलियन पन्ने प्रकाशित किए जाते हैं। ऑन लाइन पढने वालों का इसमें हिस्सा मात्र 3.5 प्रतिशत बनता है। यानी बाकी 96.5 प्रतिशत पन्ने प्रिंट में पढे जाते हैं।
वेब पर अखबार पढने वालों ने औसतन कितना समय गुजारा ,इसका भी बड़ा रोचक आंकड़ा है। 'नेल्सन' के अनुसार नेट का आदर्श यूजर 45 मिनट प्रतिमाह खर्च करता है।सन् 2008 में 67.3 मिलियन यूजरों ने नेट का सफर किया।इसमें अखबार की वेबसाइट पर यूजरों ने 3.03 विलियन मिनट प्रतिमाह खर्च किए। इसकी तुलना में मुद्रित अखबार को पढने पर 96.5 विलियन मिनट प्रतिमाह पाठकों ने खर्च किए। इसमें सोम से शनि तक 25 मिनट और रविवार को 35 मिनट खर्च किए। समग्रता में देखें तो प्रेस ने पाठक का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पाठकों के प्रतिमाह 99.5 विलियन मिनट लिए,इसकी तुलना में ऑनलाइन अखबार ने मात्र 3 प्रतिशत ही ध्यानाकर्षित किया।
इंटरनेट को हमें स्रोत के रूप में नहीं संसाधन के रूप में देखना चाहिए। संसाधन के रूप में देखेंगे तो ऑनलाइन सामग्री का सही समझ के साथ इस्तेमाल कर पाएंगे। नेट की विशेषता है कि वह हमारा पाठकीय व्यवहार और आदतें नष्ट कर देता है। पाठक की पुरानी आदतें हैं। इन्हें नष्ट करने में नेट की बडी भूमिका है। नेट ने पाठक के समूचे व्यवहार को बदला है।
यह मिथ है कि अखबार स्थानीय खबरों और नजरिए का एकमात्र स्रोत है। नेट ने इस मिथ को नष्ट कर दिया है। आप अनेक बार अखबार में जो खबर देखते हैं उससे भिन्न खबर ऑन अखबार में देखते हैं। ऑनलाइन अखबार में प्रतिक्षण अपडेटिंग होती है ,नयी खबरें आती रहती हैं।फलत: जिस समय अखबार पढते हैं उसी समय ऑनलाइन अखबार में अन्य खबरें लगी होती हैं। आपको ऑनलाइन खबर के सामने मुद्रित खबर बासी नजर आने लगती है। यह मिथ भी टूटता है कि अखबार ही स्थानीय खबर का स्रोत है।
दूसरी बात यह कि ऑनलाइन अखबारों में विभिन्न किस्म की सूचनाएं,विभिन्न किस्म के नजरिए एक ही साथ देखने को मिलते हैं। नए विचार और नये की खोज के मामले में नेट आज भी सबसे प्रभावशाली माध्यम है। अखबार के जमाने में यह धारणा थी कि अखबार का लेखक ज्यादा सूचना सम्पन्न और ज्ञान सम्पन्न होता है। लेकिन ऑन लाइन अखबार आने के बाद लेखक या संपादकीयकर्मी की तुलना में पाठक ज्यादा सूचना सम्पन्न हो गया है। आज ऑनलाइन यूजर के पास ज्यादा जानकारियां और वैविध्यपूर्ण नजरिया होता है।इस अर्थमें ऑनलाइन रीडिंग ने पाठक की महत्ता,सत्ता और क्षमता बढा दी है।
'पेव' के सर्वे के अनुसार नेट के जरिए समाचार पाने वाले 40 प्रतिशत लोग हैं। जबकि परंपरागत माध्यमों प्रेस,टीवी बगैरह से खबर प्राप्त करने वालों की संख्या 46 प्रतिशत है। सर्वे के अनुसार नेट के पाठक ज्यादा शिक्षित और संपन्न हैं इसकी तुलना में परंपरागत मीडिया से खबर प्राप्त करने वाले कम संपन्न और कम शिक्षित हैं।
इंटरनेट पर खास विषय केन्द्रित खबरों को पढने और उन्हें वर्गीकृत करके यूजरों को संप्रेषित करने का रिवाज चल निकला है। 'नेल्सन' के सन् 2008 के सर्वे के अनुसार इस तरह की 30 वेबसाइट का जब सर्वे किया गया तो पाया कि इन वेबसाइट पर प्रति व्यक्ति 21.2 बार आया। इनका 2,709,000 यूजरों ने इस्तेमाल किया।
ऑनलाइन यूजर की अखबार के पाठक से भिन्न प्रकृति के कारण ऑनलाइन अखबार की वेबसाइट पर आपको वीडियो,ऑडियो,फोटो,भाषण और जाने ऐसी कितनी ही सामग्री मिलेगी जो मुद्रित अखबार में नहीं होती। अखबार में पाठकों की राय के लिए सीमित जगह होती है,अनेक अखबारों में वह भी नहीं होती, लेकिन ऑनलाइन अखबार की खबरों के अलावा प्रत्येक संपादकीय और लेख पर भी राय व्यक्त करने के लिए स्थान उपलब्ध रहता है। इससे पाठक की शिरकत को बढावा मिला है। मुद्रित अखबार की तुलना में ऑन लाइन अखबार के साथ पाठक ज्यादा संपर्क और संवाद करता है। पाठ और अखबार का इतना प्रबल इंटरेक्टिव संबंध पहले कभी नहीं था। अखबार की तुलना में ऑनलाइन अखबार में ज्यादा आलोचनात्मक टिप्पणियां रहती हैं।
प्रेस में प्रकाशित खबरों के पतन को सिर्फ एक ही तथ्य से अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि जब सारी दुनिया में आर्थिक मंदी की तबाही मच रही थी, अमेरिका के समूचे व्यापार,उद्योग धंधे को मंदी चौपट कर रही थी उस समय अमेरिकी मीडिया युद्ध के कवरेज में व्यस्त था। मंदी और बढती बेकारी में संवाददाताओं के सामने गंभीर संकट था प्रमाण का। वे कैसे लिखें और किन प्रमाणों के आधार पर लिखें कि मंदी तबाही मचा रही है और किन-किन क्षेत्रों को बर्बाद कर रही है। वे यह बताने में भी असमर्थ् रहे कि मंदी और युद्ध के कारण कैसे सामान्य नागरिक अधिकारों का व्यापक पैमाने पर हनन हो रहा था। बहुराष्ट्रीय कारपोरेट मीडिया की जितनी दिलचस्पी युद्ध के कवरेज में थी वैसी दिलचस्पी मंदी और नागरिक अधिकारों के हनन के मामलों में नहीं थी। हाल ही में ओबामा के स्वास्थ्य सुधारों का मीडिया ने अंध समर्थन किया है। इस चक्कर में मीडिया को आम जनता की स्वास्थ्य तबाही नजर ही नहीं आयी।
मीडिया के द्वारा जिन स्रोतों के जरिए खबरें दी जाती हैं उनकी भी दशा सोचनीय है। आमतौर पर पुरूषों के स्रोत के आधार पर खबरें तैयार की जाती हैं। प्रकाशित खबरों में 85 प्रतिशत खबरें पुरूष स्रोत के हवाले से लिखी गयीं। इनमें 92 प्रतिशत गोरे थे। यही स्थिति भारत की भी है,यहां पर अधिकांश खबरों के स्रोत पुरूष हैं और हिन्दू हैं। और अधिकतर खबरें पार्टीजान स्रोत से लिखी जाती हैं। हमें भारत के संदर्भ में यह भी देखना चाहिए कितनी खबरें खाते-पीते, खुशहाल लोगों के स्रोत के आधार पर लिखी गयीं और कितनी गरीबों के स्रोत के आधार पर लिखी गयीं ? अमेरिकी मीडिया में शांति और युद्ध,स्वतंत्रता,सामजिक न्याय, सार्वजनिक स्वास्थ्य,समृद्धि, और पृथ्वी का भविष्य जैसे सवालों के लिए कोई जगह ही नहीं होती। यह तथ्य रेखांकित किया है विश्वविख्यात 'फेयर' नामक मीडिया अनुसंधान संस्था ने।
1 comment:
आंकडों का खेल कुछ कुछ हमें भी समझ में आ रहा है। शुक्रिया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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