माओवादियों ने पहलीबार किसी गिरफतार थानेदार को जिंदा छोड़ा है। संक्राली पुलिस थाने के प्रभारी अतीन्द्रनाथ दत्ता सुरक्षित अपने घर पहुँच गए हैं। इस थानेदार को माओवादियों ने क्यों छोड़ दिया ? अन्य दो अन्य बंदी पुलिसवालों को अभी तक क्यों नहीं छोड़ा ? इस रिहाई के बदले राज्यसरकार ने क्या सौदा किया ? किसके जरिए सौदा किया ? इन सब सवालों पर अनेक दृष्टियों से लिखा जा सकता है। अधिकांश टीवी चैनलों से लेकर दैनिक अखबारों तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की आलोचना हो रही है। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं राज्य सरकार माओवादियों के सामने झुक गयी,कुछ कह रहे हैं,इससे पुलिसबल और माकपा के कैडरों का मनोबल टूटेगा। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं यह सीधे केन्द्र सरकार की हिदायत का उल्लंघन है। केन्द्र सरकार का मानना है माओवादियों के साथ तब तक कोई बातचीत नहीं होगी जब तक वे हिंसा का रास्ता नहीं त्यागते। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि आखिरकार माओवादियों से राष्ट्र को सख्ती से ही निबटना होगा। इस प्रसंग को कुछ देर के लिए मीडिया उत्तेजना के दायरे के बाहर जाकर देखें तो चीजें साफ नजर आएंगी।
माओवादी संगठनों के प्रति माकपा ,पश्चिम बंगाल सरकार का जो रूख है वही रूख कांग्रेस का नहीं है। इन दोनों दलों के माओवादियों के प्रति राजनीतिक व्यवहार में भी अंतर है। माओवादियों के चंगुल से एक थानेदार का छूटकर आना राज्य प्रशासन के राजनीतिक कौशल की जीत है। यह काम न तो रमनसिंह कर पाए और राजशेखर रेड्डी ही कर पाए थे।
एक व्यक्ति को मौत के मुँह बचाकर लाना निस्संदेह खुशी की बात है। हाल ही में ऐसी कोई मिसाल याद नहीं पड़ती कि माओवादियों ने कभी किसी पुलिस अफसर को बंदी बनाने के बाद जिंदा छोड़ा हो। दूसरी बात यह है कि माओवादी इसी देश की राजनीतिक मिट्टी का हिस्सा हैं। उनका हिंसाचार निंदनीय है लेकिन जो मसला वे उठा रहे हैं उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। माओवादी जिस तरह से आदिवासियों की समस्या हल करना चाहते हैं,वह रास्ता भी सही नहीं हो सकता, लेकिन जिस समस्या पर वे ध्यान खींच रहे हैं। वह वास्तव समस्या है। उसे सभी दल मानते हैं।
पश्चिम बंगाल सरकार ने देर से ही सही,राजनीतिक सौदेबाजी के तहत ही सही, यह बात स्वीकार की है कि जिन लोगों की अदालत में जमानत का सौदेबाजी के तहत विरोध नहीं किया गया वे माओवादी नहीं थे बल्कि उन्होंने माओवादियों के आंदोलन में हिस्सा लिया था। उल्लेखनीय है कि माओवादियों ने यह मांग रखी थी कि उनके जेल में बंद 28 लोगों की जमानत की अर्जी का राज्य सरकार विरोध न करे। राज्य सरकार ने उन लोगों की जमानत का विरोध नहीं किया। फलत: उन लोगों को जमानत मिल गयी। उन लोगों के खिलाफ सामान्य राजनीतिक आरोप थे,जैसे इलाके में सड़कें खोदना,रास्ता जाम करना आदि। अब तक राज्य सरकार के विरोध के कारण इन लोगों को जमानत नहीं मिली थी। इनमें से ज्यादातर लोग साधारण ग्रामीण हैं। राजनीति एकदम नहीं जानते। इनमें से अनेक को पुलिस ने समय-समय पर प्रताडित भी किया था,ये सारी बातें तब प्रकाश में आईं जब जेल से रिहा होने के बाद सभी महिलाओं ने अपनी आपबीती प्रेस को बतायी। वस्तुगत तौर पर इन 28 लोगों का जमानत पर रिहा होना और थानेदार का माओवादियों की कैद से रिहा होना ये दोनों फैसले सकारात्मक और सुखद हैं। मीडिया को इस सकारात्मक और सुखद में तकलीफ हो रही है। दूसरी बात यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार हो या केन्द्र सरकार उसे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि माओवादी चुनौती राजनीतिक है। यह कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है। इसका फैसला मीडिया कवरेज के आधार पर नहीं राजनीतिक विवेक के आधार पर होना चाहिए।
पश्चिम बंगाल सरकार ने राजनीतिक विवेक का परिचय देते हुए अपने थानेदार को ही नहीं बचाया बल्कि उन 28 लोगों की जमानत का रास्ता भी खोला है जो गंभीर अपराध में लिप्त नहीं थे। यह सरकार और माओवादियों का मानवीय भाव है। संभवत: यह भविष्य की संभावनाओं के द्वार भी खोल रहा है। संभवत:जल्दी ही माओवादी और राज्य सरकार आमने-सामने हों। बगैर किसी जिद और पूर्व शर्त के आमने सामने हों। व्यापक हित में माओवादियों के सामने कोई पूर्व शर्त रखे बिना बातचीत की जानी चाहिए। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जिस राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया है वह इसके लिए बधाई के पात्र हैं। उन्हें इस प्रसंग में स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी से सीखना चाहिए। इंदिराजी से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी सीखना चाहिए। उत्तर-पूर्व में लालडेंगा के साथ बगैर किसी शर्त के बातचीत की गयी थी,लालडेंगा के समर्थकों ने हिंसा का रास्ता नहीं त्यागा था और समाधान की तलाश में विदेशों में थर्ड चैनल के जरिए बर्षों बातें हुईं। अंत में समझौता हुआ। आज लालडेंगा कहां है उनका संगठन कहां है,उनका हिंसाचार कहां है, कोई नहीं जानता। माओवादी संगठन से भी बगैर शर्त बातचीत होनी चाहिए और उनकी उन तमाम मांगों पर कार्रवाई का मन बनाना चाहिए जो भारत के संविधान के तहत संभव हैं। उनकी मांगों में दो मांगे प्रमुख हैं बंदी नेताओं को रिहा किया जाए,मुकदमे वापस लिए जाएं। अविकसित आदिवासी इलाकों के विकास के लिए विशेष पैकेज घोषित किए जाएं। इस प्रसंग में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने शुरूआत की है,उन्हें अपने प्रयास और भी तेज करने चाहिए।
माओवादी संगठनों की मांगें मानने से माकपा और बुद्धदेव का राजनीतिक कद बड़ा होगा। तृणमूल कांग्रेस के न्यूसेंस और अराजकभाव को धक्का लगेगा। इससे भविष्य में माकपा और वाममोर्चे के जनाधार में इजाफा होने की भी पूरी संभावनाएं हैं। आज नागालैंड में लालडेंगा की नहीं कांग्रेस और अन्य शांतिकामी संगठनों की तूती बोलती है। यही दशा भविष्य में लालगढ की भी हो सकती है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है,असम में बोडोलैंड वाले माओवादियों की ही तरह हिंसा कर रहे थे,घीसिंग ने भी हिंसा का कार्ड खेला था,त्रिपुरा में आदिवासियों में अनेक ऐसे ही हिंसक संगठन थे,लेकिन राजनीतिक समझौते के बाद वे धीरे धीरे गायब हो गए। माओवादियों के साथ बिना किसी पूर्व शर्त की बातचीत होनी चाहिए। उसके दूरगामी अच्छे परिणाम निकलेंगे।
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