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17.10.09

हमरी दिवारी.......

दिवारी है...घुंघटा काढ़े मुंह में सिर पर डला पल्लू दांतों में दबा के झिन्या ने कहा....हल्कू चुप था...मुंह लटकाए हंकनी (पशुओं को नियंत्रित करने वाला डंडा) पे ठोड़ी टिकाए.....एक बार फिर झिन्या ने अपने हाथ से हल्कू को हिलाते हुए कहा...मैं क्या हड़ूसूं (किसी को बुरी तरह से हिलाना) तईं समझै...सुनी है बजार में कछु अफरो आओ है..ते वे भैया कै रै थे..पटेल हुन कै टीबी लेत आएं हैं...मैंने देखी है वा दिवार पे लटक जाउथै...मैंने पटेलन से पूछी थीगी..कित्ते की है..ते वे कै रईं थीं कै जादा मैंगी नई है...अफरो आओ थो तेमे लैलई...मैं कऊं तू सोई तनक बजार देखआत कऊंकी अफरो में हमरे भाग में सुई होए..हल्कू चुप था अचानक से झिन्या के सीधेपन से झल्ला के बोला...अरी तू कछु नई जाने अफरो का होत है...जानत सुई है कै सुनयाई उतै ते कैन लगी इतै...जा चौका में देख कहूं कछू खाबै होय ते दै...झिन्या हल्की सी निराश और फिर कुछ खुश सी होती हुई बोली...तू..हां पटेल के हां से कछु मिठाई दई है पटेलन ने ते खालै...और पुड़ी सुई है...लाथौं रुकजा...तनक...सबर कर लै तोय तो कछु बताने ने चैये...तू रैहे अपढ़ा को अपढ़ा ...जाते हुए चौके की तरफ से झिन्या बड़ी उदास थी उसके मन में एक ही चीज़ चल रही थी जो थी अफरा याने ऑफर......भीतर से पटेल की मिठाइयां लाकर हल्कू के सामने रखते हुए फिर बोली...मोय कछु नई पता तू तो कल बजार जा भांको अफरा देख कै आ..पटेलन कै रई थी उन्हा (कपड़े) धोत की मसीन के संगे...कछु आरौ है..ते तू लेया..चलो जइए भिहान उठकै....फीरी (फ्री) को समान तू लेत आइऐ..चल अब खालै...हल्कू के मन में लगातार अफरा शब्द गूंजता रहा आखिर ये इसका अर्थ क्या है...बाज़ार अपना कितना ही रूप बदल ले लेकिन इस वर्ग के लिए आज भी ये सब अजूबा ही है....आज भी दीवाली सच में बनियों का ही त्योहार है...कहने को लोग कुछ भी कहें मगर सच तो ये ही है...

2 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

झिलमिलाते दीपो की आभा से प्रकाशित , ये दीपावली आप सभी के घर में धन धान्य सुख समृद्धि और इश्वर के अनंत आर्शीवाद लेकर आये. इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए.."

MEDIA GURU said...

dhakadhak like mare hai bahut suandra