2.4.10
शिक्षा का अधिकार कानून:निर्माण से व्यवहार तक-ब्रज की दुनिया
क्या आप जानते हैं कि हमारे प्यारे देश भारत में सरकारों के लिए सबसे आसान काम क्या है?आपको अपने नाजुक दिमाग पर जोर डालने की कोई जरुरत नहीं है मैं खुद ही बता देता हूँ.तो श्रीमान जी भारत में सरकारों के लिए सबसे आसान काम है कानून बनाना और सबसे कठिन काम है उनका पालन करवाना.हमारे देश में खुदरा में नहीं बल्कि थोक में कानून बनाये जाते हैं.बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं तो कानून बना दिया, बच्चे की स्कूल में पिटाई हो गई तो कानून बना दिया.कहने का मतलब यह कि छोटी-छोटी बातों के लिए कानून बना दिया जाता है और फ़िर उन्हें अनाथों की तरह अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है.अब भारतीय समाज के लिए लम्बे समय से गले की फांस बनी दहेज़ प्रथा को ही लें.१९६१ से भारत में दहेज़ लेना कानूनन जुर्म है और इसके लिए कम-से-कम पॉँच साल की सजा का प्रावधान है.लेकिन व्यवहार में हम क्या देखते हैं?शायद ही कोई शादी बिना दहेज़ के होती है चाहे लड़केवालों की बेतुकी मांगों को पूरा करने में लड़कीवालों की पूरी संपत्ति ही क्यों न बिक जाए.इसी तरह स्त्रियों को पैतृक संपत्ति में कानूनन बराबर की हिस्सेदारी दी गई है लेकिन वास्तव में उन महिलाओं को भी आसानी से पैतृक संपत्ति पर अधिकार नहीं प्राप्त हो पाता जिनके कोई भाई नहीं हो,भाई वाली महिलाओं की तो बात ही छोड़िये.इसी तरह बाल विवाह रोकने के लिए कानून १९३० से ही और बाल मजदूरी रोकने के लिए कानून १९८६ से ही अस्तित्व में है.लेकिन कानून बन जाने से क्या होता है क्या बाल विवाह या बाल मजदूरी रूक गई?अभी कल ही की तो बात है कल से भारतीय गणतंत्र में निवास करनेवाले सभी बच्चों को (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर) जिनकी उम्र ६ से १४ साल के बीच है शिक्षा का मौलिक अधिकार दे दिया गया है.क्या कानून बन जाना ही काफी होता है?उसे लागू कौन करवाएगा?और जब लागू कराने का सामर्थ्य आपके पास नहीं है तो आप कानून बनाते ही क्यों हैं?अभी कुछ ही समय पहले पटना नगर निगम ने एक आदेश पारित किया कि पटना में जहाँ-तहां मूत्र-विसर्जन करने पर रोक लगाई जाती है और ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर सजा दी जाएगी.लेकिन कहीं भी निगम ने मूत्रालय का निर्माण नहीं कराया.अब पेशाब को अनंत काल रोका तो जा सकता नहीं तो लोग तो कानून तोड़ेंगे ही.क्या इस तरह बिना सोंचे-समझे कानून बनाया जाता है? समाज को जब पर्याप्त सुविधा नहीं दी जाएगी तब फ़िर समाज कानून लागू करने और कराने में किस तरह मदद करेगा?देश में कितने ही स्कूल ऐसे हैं जिनके पास भवन तक नहीं हैं, कितने ही स्कूल एक या दो शिक्षकों के बल पर चल रहे हैं.दूसरी ओर प्राथमिक शिक्षा राज्यों के हिस्से की चीज है और राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी है कि वर्तमान शिक्षकों का खर्च उठा पाने में भी वे सक्षम नहीं हैं फ़िर वे कैसे शिक्षा के अधिकार से बढनेवाली जिम्मेदारियों को उठाएंगे?ऐसे में इस कानून के सफल होने पर भी प्रश्नचिन्ह का लगना स्वाभाविक है.अगर हम भ्रष्टाचार के मोर्चे पर देखें तो इस अनावश्यक बुराई को रोकने के लिए सैंकड़ों कानून समय-समय पर बनाये गए हैं.लेकिन जैसे-जैसे इसे रोकने के लिए कानून बनते रहे उनकी तादाद बढती रही उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ता रहा.कभी-कभी सरकार खुद ही अच्छे कानून को कमजोर कर देती है.२००५ में सूचना के अधिकार कानून के रूप में देश की जनता को बहुत बड़ा अधिकार दिया गया.लेकिन बिहार की वर्तमान सरकार ने इसमें संशोधन करके काम-से-काम बिहार में तो इसकी जान ही निकाल दी. किसी भी कानून की सफलता के लिए सबसे पहले तो आवश्यक है कि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले लोग अपने को कानून से ऊपर नहीं समझें और कानून का पालन करना सीखें.जब कोई पुलिसवाला खुद बिना हेलमेट के मोटरसाईकिल चलाता है तो फ़िर दूसरे लोगों से कैसे कानून का पालन कराएगा.ऐसे में तो कानून की ऐसी-की-तैसी होनी ही है.इसी तरह हमारे जनप्रतिनिधियों का जिन पर कानून बनाने की जिम्मेदारी होती है एक बड़ा हिस्सा अपराधी हैं जिन पर हत्या तक के मामले चल रहे हैं.ऐसे लोगों के लिए राजनीति कानून के शिकंजे से बच निकलने का एक माध्यम मात्र है.इन परिस्थितियों में कानून कैसे अपना काम कर पायेगा?कानून की विफलता के लिए जो दूसरी बात जिम्मेदार है वह है जनता को इसकी जानकारी का नहीं होना.अधिकांश जनता कानूनों से नावाकिफ है और सरकार इसके लिए पर्याप्त प्रचार-प्रसार भी नहीं कर रही है.जब लोग जानेंगे ही नहीं कि उनके क्या अधिकार हैं तो वे कैसे अपना अधिकार प्राप्त कर पाएंगे?इसलिए जरूरत इस बात की है कि जनता को जागरूक किया जाए.तीसरी अहम् बात है कि पूरी तैयारी करने के बाद ही कानून बनाये जाएँ.उदाहरण के लिए बाल मजदूरों के परिवारों को पर्याप्त आर्थिक सहायता का अगर पहले से ही इंतजाम कर लिया जाता तो स्थितियां बेहतर होतीं.इसी तरह बाल-विवाह को अगर रोकना था या फ़िर दहेज़ प्रथा पर प्रभावी रोक लगानी ही थी तो यदि इसे बनने से पहले स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहित करनेवाले इंतजाम किये जाते तो इस तरह कानून की भद्द नहीं पिटती.और सबसे जरूरी है समाज को भागीदार बनाना.शिक्षा के अधिकार के मामले में सबसे पहले तो जरूरी है कि सरकारी स्कूलों का स्तर बढाया जाए,शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाए तभी सामाजिक भागीदारी भी सुनिश्चित हो पायेगी और यह कानून सफल हो पायेगा अन्यथा अन्य कानूनों की तरह यह भी शांतिपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा.
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