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9.9.10

लेह से
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अभी-अभी की तो बात है
मांन ने-
अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए
विछाया था,बिछौना
ताकि! वह सो सके सुकून की नींद
रात भर,
अभी-अभी की तो बात है
जब मां-बाबा
सुना रहे थे कहानी
अपने अतती की,नौनिहालों को
अभी-अभी की तो बात है
जब पति-पत्नि का प्यार
सिमता था अंजुरी में
उसने देखा था...कल का सवेरा
अपने प्यार की सुनहरी आंखों में...।
अभी-अभी की तो बात हैउस गांव में गूंजी थी
किलकारियां...एक नवजात की
और...अभी-अभी सीखा था चलना...
मुन्ना ने पंया-पंया
खुशी के मारे...कितनी चिल्लायी थी-
मां...मुन्ना के पंया-पंया चलने पर,
अभी-अभी की तो बात है
यहां खेत-खलिहानों में-
खेल रहा था बचपन
खेल नए- नए...मदमस्त-मदमस्त
कुछ ने बनाये थे
खुद के लिए घर रेत से
कुछ तिनका- तिनका समेट-
बना रहे थे...घौंसला
पेड़ की टहनियों में...।
अभी-अभी की तो बात है
कुछ ने संज़ोए ही थे...सपने कल के लिए
और...अभी-अभी तो-
उठाया था...उसने घुंघट...उसका
जिसकी चाह में
करवटे बदल-बदल कर गुजारी थी
रातें उसने...।
सब कुछ अभी-अभी ही हुआ था
पंछी चहचाह ही रहे थे
अपनों से मिलने पर
मां की रोटी...फूल ही रही थी...चूल्हे में
बच्चे लौट आएं थे-
थके हारे...घरों को अपने
हर तरफ खुशहाली ही खुशहाली थी
गुनगुना रहे थे...'शेरिंग' लोक गीत कोई
प्रभु प्रार्थना में डूबे थे...लामा
सबकी शांति के लिए...लेह में...।
और
अभी-अभी की ही तो बात है
ना जाने लगी किसकी नज़र-
इन सब को,लेह में...।
वहां...जहां कुछ पल पहले ही
खेल रहे थे नौनिहाल
कुछ ने जलाएं थे चूल्हे
कुछ भर रहे थे अटखेलियां...प्रेम की
जहां...गूंज रहे थे...लोक गीत
की जा रही थी...प्रार्थना प्रभु की-
कुछ ने खुद के लिए...संजोए थे सपने
न जाने कुदरत क्यों रोयी..लेह में...।
और...हर तरफ फैला गयी
मंजर तबाही का
विखेर गयी...खेल-खिलौने-सपने नौनिहालों के
न किसी की लिए एक घरौंदा ही-
रखा बचाएं
चारों ओर तबाही ही तबाही फैला
कुदरत रोयी और रोयी...लेह में...।और...कुदरत के इस तांडव के बाद...
हम भी हुए शामिल लेह में-
सबसे पहले...सबसे तेज
उन चिखती- बिलखती आवाज़ो
भूखे- नंगे बच्चों...
टूटे- बिखरे घरों
कुछ...बची हुई...बिखरी हुई...धरोहरों के साथ
आंखों में कुछ बूंद आंसूओं के साथ,
अपने आधुनिक सैटलाइट...चमचमाते...कैमरों के साथ
हम हर हाल में...हर किमत पर
कर लेना चाहते हैं...कैद इन कैमरों में
उस आंख की एक बूंद को-
जो खुद के घर के चिराग की लाश को लिए-
लिपटी है उस पर...एक खण्डहर में...
हम उस हर टूटे- बिखरे खण्डहर घर के साथ मौजूद-
होना चाहते हैं-
जिसमें कुछ देर पहले नाच रही थी-
खुशीयां...
हम उस हर लाश के साथ मौजूद है
जो अभी भी फंसी है...दलदल में-
हम उस मां-बापा के साथ तो हर समय है
जिन्होंने खोये है-
जवान बच्चे अपने...कुदरत के रोने पर...
हम...हर पल...हर दिन-रात मौजूद है-
कुदरत के रोने के बाद के दुःख में....।
क्योंकि हम ही हैं-
जो इन सब को परोस रहे हैं
सबसे पहले...सबसे तेज...और सबसे आगे
एक "एक्सक्लूसिव" तस्वीर बना कर
दुनिया के सामने...सीधे लेह से...।
- जगमोहन 'आज़ाद'

1 comment:

ओशो रजनीश said...

अच्छी पंक्तिया है .....

( कौन हो भारतीय स्त्री का आदर्श - द्रौपदी या सीता.. )
http://oshotheone.blogspot.com