क्या आपने कभी अख़बारों के बैलेंस सीट पर ध्यान दिया है?सारे अख़बारों में मुनाफा बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की जैसे होड़ लगी होती है.लेकिन यह मुनाफा आता कहाँ से है कभी सोंचा है.विज्ञापनों से तो आता ही है,कुछ लोगों के अनुसार पेड न्यूज़ से भी आता है.साथ ही इसमें जुड़ी होती हैं कर्मचारियों के शोषण से बचाई गई राशि भी.कार्ल मार्क्स ने कहा था कि विकास की पहली शर्त है अतिरिक्त उत्पादन.दुर्भाग्य की बात तो यह है कि दिन-रात न्याय की बात करनेवाले अख़बार वाले भी अपने कर्मियों का शोषण कर उन्हें कम वेतन देकर अतिरिक्त उत्पादन करते हैं.आज ही मालूम हुआ और जानकर दुःख भी हुआ कि भारत के अग्रणी समाचार पत्रों में से एक दैनिक भास्कर में ट्रायल पर लोगों को रखने प्रथा शुरू की गई है.इस ट्रायल की जानकारी एचआर को भी नहीं दी जाती है, जिस वजह से संबंधित व्यक्ति हमेशा असमंजस में रहता है।बाद में जब कर्मी द्वारा पैसा माँगा जाता है तो अंगूठा दिखा दिया जाता है.यानी बिलकुल मुफ्त में काम कराया जाता है ठीक वैसे ही जैसे पहले बंधुआ मजदूरों से कराया जाता था.अब इसे शोषण की पराकाष्ठ न कहा जाए तो क्या कहा जाए?इन बेचारों से भी ज्यादा सर्वहारा कोई हो सकता है क्या?उच्च शिक्षा प्राप्त की,उच्चस्तरीय बौद्धिक परिश्रम किया और मजदूरी नदारद.जो राजस्थान पत्रिका पहले श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के अक्षरशः पालन के लिए जानी जाती थी वह भी अब शोषण पर उतारू है.कर्मचारी के गलती करने पर स्कूलों में लगनेवाले अनुपस्थिति दंड के समान जुर्माना लगाया जाता है.पत्रिका में पहले अवकाश का नकदीकरण होता था। वह बंद कर दिया गया है। बोनस बंद कर दिया गया है। वेतन वृद्धि भी संपादक अपने चमचों को ही दिला देते हैं। काम के आधार पर वेतन वृद्धि की कोई व्यवहारिक व्यवस्था नहीं है। दैनिक भास्कर का अनुसरण हर काम में किया जा रहा है। हर बार सबसे पहले वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने वाले पत्रिका में अब तक अंतरिम राहत की सिफारिश भी लागू नहीं की गई है। बांकी अख़बारों की हालात भी कमोबेश यही है.कुल मिलाकर स्थितियां ऐसी हैं कि पत्रकार समाज का सबसे शोषित वर्ग बन गया है और उनकी स्थिति कथित सर्वहारा से भी ज्यादा ख़राब है.केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अविलम्ब इस दिशा में कदम उठाए जिससे सर्वहारा पत्रकारों का शोषण बंद हो सके,वैसे भी श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम अब बेमानी हो चुका है क्योंकि कोई भी समाचार पत्र इसका पालन नहीं कर रहा.अगर केंद्र ऐसा नहीं कर सकता तो इस अधिनियम को निरस्त कर दे जिससे जो मत्स्य न्याय का नियम पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रहा है उसे वैधानिकता प्राप्त हो सके.
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