स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने से बचने के लिए केंद्र सरकार की ओर से किस तरह नित नए बहाने पेश किए जा रहे हैं, इसका ताजा उदाहरण है संसदीय मामलों के मंत्री का यह कथन कि संसद के पास पर्याप्त साधन नहीं हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं कि जिस संसद को सर्वोच्च बताया जाता है उसे कोई और नहीं, खुद संसदीय मामलों के मंत्री ही कमजोर बता रहे हैं? ऐसा लगता है कि वह यह स्मरण नहीं करना चाहते कि इसके पहले भी कई मामलों की जांच संयुक्त संसदीय समिति द्वारा की जा चुकी है? एक बार तो संयुक्त संसदीय समिति का गठन कांग्रेस की ही मांग पर किया गया था। संसदीय मामलों के मंत्री की तरह से वाणिज्य मंत्री यह दलील लेकर हाजिर हुए हैं कि संसद के न चलने से प्रजातंत्र को ठेस पहुंचती है। यदि सत्तापक्ष यह समझ रहा है कि संसद के न चलने का दोष विपक्ष के सिर मढ़कर वह खुद को जनता की निगाहों में निर्दोष साबित करने में सफल हो जाएगा तो यह दिवास्वप्न देखने जैसा है। जनता भली तरह यह जान रही है कि संयुक्त संसदीय समिति के गठन से कौन कन्नी काट रहा है और इसके लिए कैसे-कैसे हास्यास्पद बहाने गढ़े जा रहे हैं? यदि संसद में गतिरोध के चलते मंत्री समूहों की बैठक नहीं हो पा रही है तो फिर इसकी परवाह विपक्ष को क्यों करनी चाहिए? इस मामले में सबसे उल्लेखनीय यह है कि सरकार इस सवाल का कोई सीधा-सरल जवाब देने की स्थिति में नहीं कि वह संयुक्त संसदीय समिति के गठन से क्यों बच रही है? आखिर ऐसा तो है नहीं कि ऐसी कोई समिति विपक्ष को मनमानी करने का मौका दे देगी या फिर वह इसके जरिये सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाने में समर्थ हो जाएगी? संयुक्त संसदीय समिति के गठन से बचने के लिए सत्तापक्ष की ओर से न केवल बहाने बनाए जा रहे हैं, बल्कि गड़े मुर्दे भी उखाड़े जा रहे हैं। क्या इस बात का कोई मतलब हो सकता है कि भाजपा को इस भ्रष्टाचार के मसले पर बोलने का कोई अधिकार इसलिए नहीं, क्योंकि उसके अध्यक्ष कैमरे के सामने रिश्वत लेते हुए नजर आए थे? क्या इस आधार पर सत्तापक्ष को यह अधिकार मिल जाता है कि वह घोटाला करने वाले अपने मंत्री का बचाव करे? यह निराशाजनक है कि अब यहां तक कहा जाने लगा है कि अभी इसका निर्धारण होना शेष है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में फंसे ए। राजा भ्रष्ट हैं या नहीं? एक तरह से रंगे हाथ पकड़े गए भ्रष्ट नेताओं का ऐसा बचाव यही बताता है कि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रति तनिक भी गंभीर नहीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे राजनीतिक दल जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां बनाए रखना चाहते हैं जिससे सत्ता में आने पर बहुत आसानी के साथ करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे किए जा सकें। माना कि राजनीति करने और चुनाव लड़ने में अच्छा-खासा धन खर्च होता है, लेकिन क्या यह आवश्यक है कि यह धन सर्वथा अनुचित और अनैतिक तरीके से बटोरा जाए? राजनीतिक दलों को इसका आभास होना ही चाहिए कि वे अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जिस भ्रष्ट व्यवस्था को संरक्षण दे रहे हैं उसके चलते लोकतंत्र और विधि के शासन के प्रति आम जनता की आस्था डगमगाने लगी है।
साभार:-दैनिक जागरण ०५-१२-२०१०
10.12.10
निरर्थक दलीलें
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