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26.12.10

उपहार (प्रेमांजलि)

विकल हुआ था रोम -रोम ,
कुछ समझ नहीं पाया था;
बाल्यकाल था सहज ह्रदय
फिर भी तो ललचाया था ।

धूमिल -सा प्रतिविम्ब हो गया
जल-सिंचित दर्पण में ,
बिछुड़ गया था याद लिए
तेरी निज अंतर्मन में ।

धीरे-धीरे लहरें चलतीं
ले नदिया का पानी ,
धीरे-धीरे ही चलती है
अबला एक सयानी ।

धीरे-धीरे एक कली
खिल जाती है उपवन में ;
धीरे -धीरे ही बचपन
मिल जाता है यौवन में ।

बीते द्वादश वर्ष
के बहुधा रहता गया अकेला ;
अनजाने ला दिया भाग्य ने
पुनर्मिलन ......

आँखों में ज्वाला भी बसती
आँखों में ही पानी ,
आँखों से ही प्रायः
निःसृत होती प्रेम कहानी ।

देखा किन्तु प्रतीति
नहीं होती थी अंतर्मन को;
आँखें पर हो गयीं धन्य
पाकर निज प्रियदर्शन को ।

झनके उर के तार
अनेकों ही विस्मृत स्वर जागे;
एक अतीत आ गया उभर कर
एकबारगी आगे ।

एक बार देखा उसने
आश्चर्य-चकित , पुलकित हो ;
और दरी
सकुचाई सस्मित हो ।

ठहर गया छन एक
प्रीत पूरित अपने इश्वर में ;
"धन्य -धन्य , कृत - कृत्य " नाद
गूंजा निज अभ्यंतर में ।

अलग न होती है मन से
स्पष्ट नहीं दिखती है ;
बेसुध ही लेखनी कभी
उसकी बातें लिखती है ।

गर्व भरा उसका अंतर्मन
प्यास भरी हर चितवन ;
उसकी हर गति में विलास का
सम्मोहक आकर्षण ।

किसी व्याज छू जाना
उसके तन का ,मेरे तन से ;
एक तरंग का उठ जाना
हम दोनों के यौवन से ।

उभय पक्ष था ज्वार प्रबल
थी उत्कंठा भी पूरी ;
नहीं बचाए भी बच पायी
ऐसे में कुछ दूरी ।

चार प्रहर का साहचर्य
उन्मुक्त गगन में पाकर ;
लगा खेलने आँख मिचोली
चाँद गहन में आकर ।

तेरा वह आक्रमण अनूठा
तेरा ही संघर्षण ,
तेरी ही वह विजय और
तेरा वह आत्म-समर्पण ।

मंथर हृत्स्पंदन सा
ध्वज मीन शरों का चलना ;
बड़े veg से निह्स्वासों का
ऊपर उठनआ ढलना ।

वह अपना तारूण्य प्रथम
वह प्रथम प्रभा के दर्शन ;
जगती के वैभव में जैसे
डूब रहा था चेतन ।

वह जड़त्व का सुखद पक्ष
वह तम की रसवत्ता थी ;
वह प्रकृति की गुणवत्ता की
एक विशिष्ट सत्ता थी ।

लड़ना टकराना लहरों का
फिर समरस हो जाना ;
वह तन्मय हो दो हृदयों का
आपस में मिल जाना ।

एक शैथिल्य मधुर हिमकर सा
शांत स्निग्ध , परितोषी ,
क्लांत, म्लान , वह हाय! कलंकित
किसको माने दोषी ?

देवराज या फिर अपने को ,
या उस रूप-सुधा को ,
लगा दाग दामन में उन्मन
रहा देख वसुधा को ।

बता रही थी उसके चेहरे पर
विषाद की रेखा ;
एक भूल को भी प्रकृति ने
किया नहीं अनदेखा ।

अन्दर एक निर्दोष ह्रदय था
बाहर कोई गम था ;
अपने ही से पूछ रहा
अथवा दण्डित आदम था ।

"यही हाल होना था गर वह
पक्व मधुर फल खाए ,
परमपिता अपनी बगिया में
क्यों उसको उपजाए ?

वह चिंतन था , वह विचार था ,
वह दुरूह दुस्तर था ;
नहीं प्रश्न था
अथवा उसमें स्वयऍम निहित उत्तर था ।

अर्थहीन था , वह भ्रामक था ,
कुछ भी नहीं कहीं था ;
बीत गया जब समय
लगा जो कुछ भी हुआ सही था ।

वृद्ध पर गएaलंकार सब ,
तरूनाई ,अरुणाई ,
बाला , तरुनी , मुग्धा , रमणी
फिर प्र व या बन आई ।

किये कभी थे प्यार परस्पर ,
अंतर्मन के दर्शन ;
पृथक हुए फिर नियति नियंत्रित
ले वह अनुभव नूतन ।

उस अनुभव को
शाश्वत


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