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15.12.10

एक बार मिल तो लीजिए

हमारे पास सोशल नेटवर्किंग के लिए तो वक्त खूब है, जिन्हें हम जानते तक नहीं उन अंजान लोगों को फेसबुक पर एक क्लिक करते ही मित्र बना कर हम कितने उत्साहित होते हैं लेकिन हमारे आसपास जो लोग रोज हमसे नजरें मिलाते गुजरते हैं उनसे हेलो-हाय में हमारा दम्भ आड़े आ जाता है। हम लोगों से मिलने, उन्हें जानने-समझने से पहले ही धारणा बना लेते हैं कौन अच्छा और कौन नकचड़ा है। विज्ञापनों की भाषा में भी बदलाव आया है कि पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वाश करें, हमारे दिलो-दिमाग को तो ये आसान सी बात भी समझ नहीं आ रही है।बहुत ही नजदीकी दोस्त के परिवार में शादी समारोह था। जाना तो मुझे भी परिवार सहित था लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाया। मैंने उसी शहर में पढ़ रही और होस्टल में रह रही बिटिया से अनुरोध किया कि वह पूरे परिवार की तरफ से शामिल हो जाए। मुझे जिस उत्तर की अपेक्षा थी बिल्कुल उसी अंदाज में उसने झुंझलाहट भरे लहजे में कहा मैं जिन्हें जानती तक नहीं, जो लोग मुझे भी नहीं जानते वहां जाकर मैं क्या करूंगी? मैंने अपने तरीके से उसे समझाने की कोशिश की जब तक हम किसी से मिलेंगे नहीं एक-दूसरे को कैसे जाने-पहचानेंगे?
खैर, मेरे अनुरोध पर उसने मन मारकर वहां जाने की सहमति दे दी। मैं तो मान कर ही चल रहा था कि अगली सुबह वह फोन करके अपनी भड़ास निकालेगी। मेरा यह अनुमान तब गलत साबित हो गया जब उसी रात उसने शादी समारोह से बाहर निकलते ही मुझे फोन लगाया और उत्साह से बताती रही कि वहां जाकर उसे बहुत अच्छा लगा। परिवार के जितने लोगों से भी मिली यह लगा ही नहीं कि वह उन सबसे पहली बार मिल रही है। सभी लोगों ने उसका उत्साह और पारिवारिक आत्मीयता के साथ स्वागत किया और परिवार का कोई न कोई सदस्य पूरे वक्त न सिर्फ उसके साथ रहा वरन बाकी रिश्तेदारों से भी मिलवाया।
मैंने उसकी सारी बात सुनने के बाद पूछा अच्छा बता तेरी पहले से बनाई धारणा गलत साबित हुई या नहीं? उसने बिना किसी किंतु-परंतु के मान लिया कि आप सही कह रहे थे। हमेशा कि तरह मैंने पूछा इस सारे प्रसंग से हमें क्या सीखने को मिला? उसका जवाब था कभी भी किसी इंसान के बारे में पहले से कोई धारणा नहीं बनाना चाहिए।
पर हम सब ऐसा कहां कर पाते हैं। कुछ हमारा अपना अहम और कुछ चेहरा देख कर लोगों के बारे में अनुमान लगा लेने के अपने झूठे दम्भ के कारण कई बार हम लोगों को पहचानने में भूल भी कर बैठते हैं लेकिन अपनी गलती को मानने का साहस फिर भी नहीं दिखा पाते। हम जिसके बारे में अनुमान लगाते हैं कि वह शख्स बहुत अच्छा होगा, वह एक-दो मुलाकात के बाद ही मतलबी नजर आने लगता है। और जिसका चेहरा देखकर हम सोच लेते हैं कि वह तो बहुत घमंडी होगा, वह नेकदिल और आधी रात में भी मदद के लिए तत्पर रहने वाला निकलता है।
इसमें ऐसे सारे लोगों का कम हमारा खुद का दोष ही ज्यादा होता है। क्योंकि हम खुद तय करते हैं किससे मिलें, किस का चेहरा पसंद करें और किस को अस्वीकार करें। जिससे हम मिलना चाहते हैं वह तो हमें अच्छा लगने लगता है और जिससे हम मिलना नहीं चाहते उसे हम बिना बातचीत किए ही नकार देते हैं।
मुझे उन तीन दोस्तों में से एक द्वारा सुनाए किस्से की याद आ रही है। इन तीनों को याद आई कि उसी शहर में उनके पूर्व शहर का एक अन्य दोस्त भी वर्षों से रह रहा है। तीनों ने तय किया कि चलो आज उससे भी मिल लेते हैं, फिर कहने लगे पहले जिस काम के लिए चल रहे हैं वह कर लें बाद में देखेंगे। बातचीत में अहम, दम्भ और पूर्व धारणा भी आड़े आने लगी। अंतत: यह तय हुआ कि आज उससे मिल लेते हैं, व्यवहार-विचार नहीं मिले तो भविष्य में कभी नहीं मिलेंगे। उस दोस्त को फोन करके सूचित किया डेढ़ घंटे बाद आपके घर आएंगे। उसकी उत्साहजनक प्रतिक्रिया से इन तीनों ने अपना काम निपटाने के बाद फिर फोन लगाया। घर गए, चाय-नाश्ते जितने वक्त में ही इतनी प्रगाढ़ता हो गई कि एक घंटे पहले तक वह जो दोस्त इन सबसे अपरिचित था, उसे परिवार सहित उसी रात खाने पर भी आमंत्रित कर लिया और अब ये चारों अच्छे मित्र हो गए हैं। यही नहीं अब अपने पूर्व शहर के अन्य लोगों को भी तलाश रहे हैं।
एक तरफ जमाना सोशल नेटवर्किंग की साइट्स पर तेजी से दौड़ रहा है, दूसरी तरफ हम हैं कि अपने आस-पास के लोगों, एक ही रास्ते पर रोज आते-जाते टकराने वालों से बात करना तो दूर हल्के से मुस्कुराने में भी इसलिए होंठ कसकर भीचे रहते हैं कि सामने वाला रोज टकराता है तो क्या हुआ पहले वह मुस्कुराए फिर हम तय करेंगे कितने हाेंठ फैलाना है। दरअसल यह हालात भी बने हैं तो इसलिए कि हमें भय बना रहता है कि हमने मैत्रीपूर्ण संबंधों का दायरा बढ़ाया तो कही कोई चुइंगम की तरह हमसे चिपक ही न जाए।
कितनी अफसोसजनक स्थिति होती जा रही है, अब हमारा ज्यादातर वक्त सोशल नेटवर्किंग साइट पर फे्रंडशिप बढ़ाने में बीत रहा है। बडे फ़ख्र से हम फेसबुक सहित अन्य साइट पर अपने दोस्तों की बढ़ती संख्या का आंकड़ा बताते हैं लेकिन अपने आसपास हमारे संबंधों का पौधा कब सूख गया यह पता ही नहीं चल पाता। जिन्हें हम जानते-पहचानते नहीं उनकी फे्रंड रिक्वेस्ट को तो एक क्लिक पर स्वीकृत कर देते हैं लेकिन हम जिस मल्टी स्टोरी, जिस कॉलोनी, जिस मोहल्ले में रहते हैं वहा पड़ोस के फ्लैट में कौन रहता है यह तक पता नहीं होता। जब नेट और टीवी नहीं हुआ करते थे तब किसी की भी लोकप्रियता का मापदंड इस बात से लगाया जाता था कि उसकी अंतिम यात्रा में कितनी भीड़ उमड़ी। अब तो हालत यह है कि हम शादी का रिसेप्शन तो महंगे से महंगे होटल में रखना चाहते हैं लेकिन प्रति प्लेट खर्च अधिक लगने पर थोड़ा सस्ता होटल पसंद करने की अपेक्षा बनाई गई आमंत्रितों की सूची में से अपने कई नजदीकी मित्रों का नाम काटना ज्यादा आसान लगता है।

1 comment:

अजित गुप्ता का कोना said...

कीर्ति जी आजकल कहाँ हैं? गंगानगर या और कहीं?