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11.12.10

हिन्दी न्यूज़ चैनलों की घड़ी ठीक हो गई क्या?

आज तक से मिलाइये घड़ी। 6 बजे की खबरें ठीक 6 बजे। देखिए आज शाम ठीक 6 बजे। दोपहर में भी चल रहा था कि 2 बजे की ख़बरें 2 बजे। आज बहुत दिनों बाद इस तरह का फ्लैश देखा तो मन गदागद हो गया। कोई अगर तीन महीने बाद अमरीका से लौटा हो और हिन्दी न्यूज चैनल देख रहा हो तो चकरा जाएगा। एक चैनल कहता है कि 2 बजे की ख़बरें 1:57 पर देखिये। कोई चैनल यह कह रहा है कि 2 बजे की ख़बरें 2 बजे देखिये। पूछेगा ही कि हो क्या रहा है। 2 बजे की खबर 2 बजे नहीं देखते हैं तो कब देखते हैं और अब क्यों कह रहे हैं कि इस बजे की ख़बर इसी बजे देखिये। पता नहीं हिन्दी न्यूज चैनलों के इस टाइम ज़ोन को बदलने की शुरूआत किस चैनल ने की, इसकी सूचना नहीं है। मगर लोग कहते हैं कि तीन मिनट पहले खिसकाने की शुरूआत आज तक ने ही की थी। शुरू में 9 बजे की ख़बरें एक मिनट पहले आने लगी। फिर धीरे-धीरे टीआरपी पंडितों ने कहीं से फार्मूला निकाला कि हम दो मिनट पहले ही शुरू कर देते हैं तो इस खेल में और इसकी चपेट में सारे चैनल आ गए। मुझे भी अपनी रिपोर्ट का वक्त बताने में तकलीफ होती है। लोगों को 9:28 बजे का समय बोध कराते यानी रटाते-रटाते थक गया हूं। अगर आज तक के इस प्रभाव में ये तकलीफ दूर हो जाए तो खुशी होगी। वर्ना मैंने तो इस उम्मीद में इसी ब्लॉग पर लेख दिया था कि जल्दी ही 2 बजे की ख़बरें 1:30 बजे होने लगेंगी। पर हिन्दी न्यूज़ चैनलों की एक सबसे बड़ी ख़ूबी पर किसी की नज़र नहीं गई है। वो ख़ूबी यह है कि यहां हर बुराई अस्थाई है। अस्थाई बुराइयों का ऐसा सिलसिला है जो टूटता नहीं बल्कि स्वरूप बदलता रहता है।

तो आज तक पर नज़र पड़ते ही मुझे दो,तीन और चार बजे जैसे समय बोध की सम्मान वापसी पर खुशी हुई। किसी ने बताया कि आज तक ने यह भी कहा कि सोच कर देखिये कि अगर दो बजे की फ्लाईट तीन मिनट पहले उड़ जाए तो क्या हो। अगर वाकई ऐसा चला है तो इस आइडिया के अन्वेषक को बधाई। काश पहले ही सोच कर सोच लिया गया होता। ट्रको पर लिखा होता है सोच कर सोचो साथ क्या जाएगा। चलिये अब ख़बरों की उड़ान तीन मिनट पहले शुरू नहीं होगी। यह सब बदलाव साबित करते हैं कि टीआरपी और उसका अध्ययन-विश्लेषण पूरा फ्राड मामला है। एक्ज़िट पोल की तरह। काश इसे कोई चुनाव आयोग टाइप की संस्था बंद करवा देती। वैसे स्वीस कंपनी के साथ मिलकर एक नई घड़ी बनानी की मेरी योजना पर पानी फेर दिया है आज तक ने। मैं एक ऐसी घड़ी बनवा रहा था जिसमें 12 की जगह 11:57 और 9 की जगह 8:57 लिखा होता। दुनिया की पहली घड़ी होती तो हिन्दी न्यूज़ चैनलों के हिसाब से होती। ख़ैर। कोई पहली बार नहीं है जब कोई सपना टूटा हो।

उम्मीद की जानी चाहिए कि परम अनुकरणीय आज तक की इस पहल का सब अनुकरण करेंगे। उसका असर मेरी रिपोर्ट के समय पर भी होगा। IBN-7 पर तो एक विज्ञापन भी देखा। न धोनी न सहवाग। देखिये शाम 6:30 बजे। मेरी खुशी और दुगनी हो गई। IBN-7 ने यह नहीं कहा कि देखिये शाम 6:27 बजे। लेकिन स्क्रोल के स्पेस पर चल रहा था नो एंट्री-6:27 बजे। मेरी खुशी उतर गई। थोड़ा तो वक्त लगेगा वक्त को सुधरने में। इंतज़ार कर लेंगे। इंडिया टीवी पर लेख लिखे जाने के वक्त फ्लैश आ रहा था-गंभीर बेच रहे हैं-7बजे। पता नहीं तीन मिनट पहले ही बेचने लगे या फिर ठीक सात बजे से बेचने लगे। देख नहीं सका। वैसे हिन्दी चैनलों के बीच नकल को लेकर हमेशा से स्वस्थ प्रतियोगिता रही है। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई चैनल दूसरे चैनल को डांट रहा हो कि स्पीड न्यूज़ मैंने शुरू की तो आपने नकल क्यों की? बल्कि सब इस बात में खुशी होते हैं कि देखा नकल हो रही है,मेरा आइडिया सही था। इसीलिए हम अलग उत्पाद की खोज सिर्फ अपने लिए नहीं करते,औरों के लिए भी करते हैं। किसी बिजनेस में आपने ऐसी स्वस्थ प्रतियोगिता देखी है?

जल्दी ही मैं एनबीए नाम की संस्था से मांग करने वाला हूं कि न्यूज़ चैनलों को ट्रैफिक रेगुलेटर की भी ज़रूरत है। कुछ ख़बरों की रफ्तार इतनी तेज हो चुकी है कि चेतना के स्तर पर दुर्घटना होने का ख़तरा है। स्पीड न्यूज़ की रफ्तार तय होनी चाहिए। जब कारों के लिए स्पीड ब्रेकर है तो न्यूज़ के लिए क्यों न हो। निर्बाध गति से खबरों की रफ्तार नहीं होनी चाहिए। स्पीड न्यूज़ में लगने वाले क्लच ब्रेक और रगड़ खाते चक्कों की आवाज़ से उत्तेजना फैलती है। स्पीड न्यूज़ देखने के बाद हो सकता है कि कोई अपनी कार की रफ्तार तीन गुनी तेज़ कर दे। सारी दूरियां तीन मिनट में तय कर लेने के लिए। संपादक योग शक्ति से अपनी क्षमता का विकास कर लें। तीन मिनट में तीन सौ खबरों पर फैसला देने का। उप संपादक और संवाददाता तीन सेकेंड में तीस ख़बरों के निर्देश सुनने और समझने की क्षमता का विकास कर लें। नहीं कर सकते हैं तो मुझसे कहिए। मैं आईआईटी रूड़की जाकर लिप्स्टिक से एक न्यूज़ मानव तैयार करता हूं। जो फिजिक्स को भी बदल देगा कि खबरों की रफ्तार प्रकाश और ध्वनि से भी तेज़ होती है। क्या करें? हिन्दी न्यूज़ चैनलों के पास वक्त कम है। धीरज भी कम है। उन्हें सुपर सोनिक स्पीड की तलाश है ताकि तीन हज़ार ख़बरें एक ही मिनट में निपटा कर स्वर्ग और सेक्स जैसे विषयों में वक्त लगा सकें। इसके लिए टाइम और स्पीड दोनों ज़रूरी हैं। वैसे मैं 2010 को हिन्दी न्यूज़ चैनलों के सुपर-सोनिक वर्ष के रूप में मनाना चाहता हूं।

(लिप्स्टिक का संदर्भ यह है कि रूड़की में एक प्रतियोगिता हो गई। लड़कों ने लड़कियों के होठों पर अपने दांतों के बीच दबी लिप्स्टिक लगा दी,न्यूज़ चैनलों ने मार कर दिया,कालेज प्रशासन ने लिप्स्टिक रोगन प्रतियोगिता में शामिल अधर-द्वय को सस्पेंड कर दिया,बहुत नाइंसाफी है)
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साभार:_क़स्बा ब्लॉग

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