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4.1.11

चाह रहा फिर से

( चर्मण्यवती नदी की प्रशंशा कलिदा स ने मेघदूत में रंतिदेव की कीर्ति के रूप में किया है । उसे ही आज चम्बल कहते हैं । इसमें स्त्री उर्जा के विचित्र विम्ब बनते हैं । )

चाह रहा फिर से मिल जाती
गीली -सी कोई चम्बल ।
इस सुराप (ऋषि ,कवि और शराबी) को सुरा पिलाती
गीली-सी कोई चम्बल । चाह ............
जब तेरी आँखों में देखा
जाने क्यों मदहोश हुआ ;
झलक रही थी उन आँखों में
नीली - सी कोई चम्बल । चाह ..............

तेरे निह्स्वाशों की मुझको
याद कभी जब आती है ;
दिल पर छा जाती है छैल
छबीली-सी कोई चम्बल । चाह .............

रग -रग में बसने वाली
हर एक रवानी चम्बल की ;
सपनों में रक्ताभ , धवल ,
कुछ पीली -सी कोई चम्बल । चाह ............

4 comments:

Shri Sitaram Rasoi said...

Dear Dr. Pandey,
You have writen beautiful poem on Chambal. ry to visit me at http://flaxindia.blogspot.com
Thanks.
Dr. O.P.Verma

Dr Om Prakash Pandey said...

Thank you , Dr Verma , I'll visit your blog .

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

वाह पाण्डेय जी...
बहुत खूब...श्रृंगार की उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति...चम्बल का मानवीकरण अत्यंत मनोरम बन पड़ा है...बधाई हो...जय भारत जय भारती

Dr Om Prakash Pandey said...

bahut bahut dhanyawaad ! mayankji ,
jay bharat , jay bharatee !