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11.1.11

व्यथा और क्रंदन

(यह कविता मैंने नंदीग्राम में हुए फसादों के समय लिखी थी ।)

यात्रा में युग की है कैसा ये दौर आज
पशुवत बनकर सारे आप -आप चरते हैं ;
हँसते हैं चोर - धूर्त , कपटी , ठग कुटिल हास्य
जो हैं अकिंचन बस घुट-घुट कर मरते हैं ।

कहने को तो है आज़ाद आज मानव पर
मानवीय मूल्यों की कितनी महत्ता है ?
जितनी थी हृदयहीन रक्तप सी पहले यह
उससे भी अधिक कहीं क्रूर आज सत्ता है ।

वैभव विहीन - शक्तिहीन आज होते ही
कीड़े-मकोड़ों सा सोच लिया जाता हूँ ;
होकर असहाय , हाय ! चलता जब गलियों में
गुंडे परिंदों से चोंच लिया जाता हूँ ।

केवल वन-क्रंदन सा करता पुकार किन्तु
सुनकर भी आर्तनाद कौन चला आता है ?
यांत्रिक इस जीवन की भारी-सी भाग दौड़
मानव का मानव से गया टूट नाता है ।

व्याकुल मन ई श्वर का नाम अगर लेता हूँ
संशय भरे जग में वह भी गुनाह है ;
कितने तलों तक यह टूट गया मान व है
बर्बर जग करता न इसकी परवाह है ।

कटता छंटता फटता , किसी तरह मैं वापस
बचकर दरिंदो ओं से यदि लौट आता हूँ ;
वैश्वीकरण के कुचक्र वात से घायल
अ पने घरों दे को तार -तार पा ता हूँ ।

म आ न अव मतों से ही चुनी गयी सत्ता यह
मान अव मानव में करती दरार आर पार ;
नाच रही पूंजी के हाथों बेहयअ नाच
बहरी यह मानव की सुनती न अहीं गुहार ।

होता मानवता का चीर-हरण सरेआम
कहाँ हुआ लुप्त न्याय सोच नहीं प् अत अ हूँ ;
कैसा जनतंत्र जहां अपनी जमीन से ही
सत्ता के हाथों मैं नोच लिया जाता हूँ ।

2 comments:

Kailash Sharma said...

होता मानवता का चीर-हरण सरेआम
कहाँ हुआ लुप्त न्याय सोच नहीं प् अत अ हूँ ;
कैसा जनतंत्र जहां अपनी जमीन से ही
सत्ता के हाथों मैं नोच लिया जाता हूँ

आज के हालात पर एक कटु परन्तु सार्थक टिप्पणी..बहुत मर्मस्पर्शी..

Dr Om Prakash Pandey said...

dhanyawaad!sharmaji.