जब किसी पत्रकार को पीडित या दमित होते देखता हूं,तो अनायास ही गेंदें के फूल की दशा बरबस याद आ जाती है।यूं तो गेंदें के फूल को एक फिल्मी गाने में कुछ तबज्जो पहली बार ही मिली है।वास्तव में गेंदें की स्थिती भी एक दलित की तरह है,एक दया के पात्र की तरह है।गेंदे की अपेक्षा गुलाब अधिक लोकप्रिय व स्नेही है।गेंदा अपने लाख जतन करता रहे,उसे प्यार के प्रतीक के रूप में सम्मान नहीं मिल सकता।अपनी सुवास से मंगल करते हुये यदि वह खत्म हो जाय तो श्रद्धावश लोग उस पर गुलाब ही चढाने लगते हैं।इससे बडी बिडम्बना और क्या होगी कि कवि जो स्वंय इसी संवर्ग से ताल्लुक रखते है,वे भी अपना काव्य विषय गुलाब ही चुनते हैं।
खैर सीधे-सीधे विषय पर आना चाहिये।पिछले दिनों बनारस मे एक पत्रकार गोष्ठी हुयी,जिसका विषय था’,पत्रकार और सच’।जैसा हमेशा होता है,इस गोष्ठी में भी हुआ,पत्रकारों से अपेक्षा की गयी कि वे अपने को घटना से अलग रखते हुये समाचार बनायें।मिशनरी दायित्वों का निर्वहन करें।मिशनरी पत्रकारिता का नाम आते ही बडा तेज गुस्सा आता है कि जैसे पत्रकार को बिना किसी अधिकार के जिम्मेदारी उठाने की कसम खिलायी जा रही हो।क्या अपने समस्त अधिकारों को ताक पर रखकर मिशन को पूरा किया जाय।पत्रकारिता के उच्च स्तर पर समाचार की कीमत किस रूप में वसूल ली गयी,इस बात का पता भी नहीं चल सकता।लेकिन निचले स्तर पर बहुत छोटी तनख्वाह हासिल करने वाले पत्रकार से मिशन के लिये काम करने की उम्मीद,उसके साथ अन्याय है,नाइंसाफी है।सीमित संसाधनों में बिना किसी संरक्षण के काम करना काफी रिस्की समझा जाने लगा है।सिस्टम के विरूद्ध लिखना उसकी हिम्मत नहीं है,और यदि तैश में आकर सिस्टम के खिलाफ लिख भी दिया तो वह छपेगा नहीं।कहीं मिशन का मतलब सिस्टम के साथ चलना तो नहीं है।मुझे कई ऐसे उदाहरण याद हैं जब सही काम के लिये पत्रकार ने हिम्मत से काम लिया,लेकिन उल्टे उसे अपने अखबार से डॉट खानी पडी और उसे अपने आकाओं से बिल्कुल सहयोग नहीं मिला।बदॉयूं जिले में कुछ इलेक्ट्रानिक टी0 वी0 के पत्रकारों ने पहली बार हिम्मत दिखायी कि किस प्रकार तहसील में बिना पैसा लिये कोई काम नहीं करता।रिजल्ट ये हुआ कि तहसील कर्मियों ने पत्रकारों की पिटायी की एवं एक पत्रकार के गले से सोने की चैन तोड ली।मामला सीधे-सीधे लूट का बनता था,लेकिन प्रशासन के खिलाफ कुछ भी नहीं हुआ।प्रशासन के खिलाफ सीधे-सीधे कभी नहीं लिखा जाता,उन लोगों को इतनी समझ नहीं थी।पिटे पत्रकारों को बहुत शर्म झेलनी पडी।अब कभी भी इनके द्धारा पत्रकारिता को मिशन नहीं मानने की कसम खा ली गयी है।दूसरा उदाहरण अभी ब्लाक प्रमुख चुनाव के दौरान शाहजहॉपुर में एक पत्रकार की पिटायी एक मंत्री व उनके चेलों द्धारा कर दी गयी।इस केस के बारे में कुछ नहीं हुआ।इसी तरह मुरादाबाद में एक प्रतिष्ठित पेपर के संवाददाता व स्थानीय संपादक के विरूद्ध पुलिस ने एफ0आई0आर0 दर्ज कर ली।इन पर आरोप है कि इन्होंने समाचार को सनसनीखेज बनाया।वास्तव में पत्रकारो ने तथ्यो के आधार पर समाचार बनाया था।लेकिन पुलिस के सामने उनकी नहीं चली,पुलिस ने कहा कि कानून के दायरे में सब है,कोई उससे उपर नहीं हैं।यह मामला पुलिस अस्पताल का था,एवं इतना संगीन था कि दो कर्मचारीयों को तत्काल जेल भेज दिया गया था,व जॉंच बिठा दी गयी।इस खबर ने लोंगों के होश खराब कर दिये,लोगों की संवेदना को झकझोर कर रख दिया।बिना पोस्टमार्टम किये लाशों की रिपोर्ट तैयार करना अत्यंत गंभीर है।साथ ही एक बोरे में नर कंकालो को भरकर रखा गया था,जो सीलबंद नहीं थे और न हीं सीलबंद कमरे में थे।।अस्पताल प्रशासन की खुन्नस के चलते व पुलिस की मिली भगत से रिपोर्ट लिखी गयी।वो तो भला है कि संवाददाता के साथ-साथ स्थानीय संपादक भी इसमें शामिल हैं,अन्यथा अब तक पत्रकार को तो नौकरी से निकाल दिया गया होता।इस तरह के पता नहीं कितने ऐसे मामले होगें जहॉं पत्रकारों के साथ अपमानजनक सलूक होता है।
वास्तव में हम जब चितंन के मूड में होते हैं तो हमारा दिमाग आदर्श रूप की कल्पना करता है,लेकिन जमीनी सच्चाई इसके ठीक विपरीत होती है।हम आप सब जानते हैं कि मैक्स बेबर ने ब्यूरोक्रेसी का वो आदर्श माडल बनाया है,जो यदि सिद्धांतगत हूबहू काम करे तो पूरे विश्व में किसी को कोई तकलीफ न हो।लेकिन होता क्या है,ब्यूरोक्रेसी,लालफीताशाही के धागे में बंधकर जनता को बंधक बना लेती है।नौकरशाही में अधिकारी अपनी सीट को बपौती समझ लेते हैं,सीट के अधिकारों को अपने अधिकार समझ लेते हैं।खुद को राजा समझने लगते हैं।अब ऐसी व्यवस्था जो स्वंय को श्रेष्ठ मानती हो,के सामने खडे होकर एक पत्रकार सच लिखने या बोलने की हिम्मत करेगा,तो उसे बडे कलेजे के साथ-साथ कवर की भी जरूरत पडेगी ही।वो मीडियाकर्मियों के लिये कभी उपलब्ध नहीं होता।बनारसी गोष्ठी में कहा गया कि समाचार घटना का एक रूप होता है,वह पूरा सच नहीं होता।हमें घटना का हिस्सा नहीं बनना चाहिये,और न हीं हमें यह भ्रम पालना चाहिये कि हम पूरी मीडिया हैं।व्यवहार में काम करते-करते घटना का हिस्सा बन जाना एक स्वाभाविक बात है।ये तो बिल्कुल वही बात हुयी कि मोहब्बत की जाय,लेकिन दिल को अलग रखकर।जब दिल से बात निकलेगी तो कुछ लोगों को बुरी लगेगी ही। यही रिस्क फैक्टर है,जिसे न्यूट्रल करने के लिये एक पत्रकार को कवर फायर की जरूरत पडती है।अच्छा है,सुन्दर है,तो गेंदें को भी प्यार में गिफट देना शुरू करो।
इस मामले में एक बात कहना भी जरूरी है कि इस धंधें में कुछ गंदे लोग भी हैं,जो इसे हद दर्जे तक बदनाम करने में लगे हैं।जिनका अपना कोई जमीर नहीं वे जज्बातों का क्या खाक ख्याल रखेंगें।इस मामले में हमें पूरी पत्रकार जात पर तोहमत नहीं लगा सकते।
11.1.11
पत्रकार जात--एक गेंदा फूल
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1 comment:
patrakar aaj ke yug me bahut hi himmat se karya kar rahe hain kintu prashasan ka ravaiyya unke prati kuchh sandeh ka hi rahta hai aur isme aadha dosh patrakaron ka bhi hai kyonki ek athority ke roop me ve is shabd ka istemal kar rahe hain kintu iska khamiyaza achchhe patrakaron ko bhi jhelna padta hai aur yahi ho bhi raha hai.patrakaron ko savdhan karti uttam post...
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