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2.3.20

आपराधिक राजनीति

डा. शशि तिवारी

राजनीति बीच अपराधी है या अपराधी बीच राजनीति है या राजनीति ही अपराधी है। वास्तव में राजनीति और अपराधी आपस में इतने गुंथे हुए है कि दोनों को एक दूसरे से अलग करना न केवल मुश्किल लग रहा है बल्कि नामुमकिन भी लगने लगा है। या यूं कहे कि ये एक ही सिक्के के दो पहलू है। आज जनमानस इतना भ्रमित एवं डरा हुआ है कि पता नहीं कब कौन सा गुण्डा, बलात्कारी माननीय बन जाए, जेल की जगह सुरक्षित स्थान, कवच संसद/विधानसभा बन जाए। जनता के सामने राजनीतिक पार्टियां जिस तरह का प्रत्याशी पेश कर रही है जनता के लिये तो एक तरफ खाई तो दूसरी ओर कुआं ही है। अब जनता को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी अर्थात् अधिकांश पार्टी भक्त होते है फिर प्रत्याशी कोई भी हो, कैसा भी हो, चलेगा, बहुत कम प्रत्याशी के व्यक्तिगत् प्रोफाइल, व्यवहार, चरित्र, सामाजिक कार्य करने की तत्परता को देखते हैं, यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या अति नगण्य है।

आजकल तो राजनीतिक दलों में अपराधी छवि वालों की मांग अचानक बढ़ सी गई है एवं इन्हे टिकिट देने की होड़ सी लग गई है। अब राजनीतिक दलों का भी एकमात्र उद्देश्य जीत और जिताऊ प्रत्याशी ही रह गया है फिर चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो चलेगा? अब वह समय  दूर नही है जो माफिया और डाॅन ही पार्टी और संसद/विधान सभाओं को चलायेंगे। हमारा राजनीतिक समाज भी इतना निर्लज्ज हो गया है कि वह न तो चुनाव आयोग के सुझावों को मानता है और न ही समय-समय पर राजनीति में अपराधीकरण के खात्मे को लेकर सुधारों पर ही अमल करना चाहता है, बल्कि दिन प्रतिदिन नए कुतर्कों का सहारा ले राजनीति को केवल आपराधिक तत्वों की शरणास्थली ही बनाता जा रहा है।

चुनाव आयोग की एक कठोर पहल तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन.शेषन ने 90 के दशक में शुरूआत की थी तब लगा भी था कि शायद अगले 25-30 वर्षों में इसका सकारात्मक असर दिखेगा लेकिन नतीजा सिफर ही रहा, उलट अपराधी पृष्ठ भूमि के प्रत्याशियों में अप्रत्याशित वृद्धि ही हुई इस कलंक से कोई भी राजनीतिक पार्टियां अछूती नहीं है।

वर्ष 2018 में सुप्रीम र्को में सरकार ने एक हलफनामा प्रस्तुत कर बताया कि देश भर में कुल 1765 सांसद/विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज है इसी तरह हाल ही में दिल्ली विधानसभा में जो 70 नये विधायक चुनकर आये उसमें 53 प्रतिशत पर गंभीर अपराध दर्ज है।

ऐसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (ए.डी.आर.) के अनुसार2004 में दागी सांसद एवं गंभीर अपराध प्रकृति के 12 प्रतिशत, सन् 2009 में संख्या 30 प्रतिशत एवं गंभीर प्रकृति के अपराधियों की संख्या 14 प्रतिशत वही 2014 में अपराधी तत्व 30 प्रतिशत एवं गंभीर मामले 14 प्रतिशत हो गए। 2014 से 2019 में दागी सांसद 34 प्रतिशत से 43 प्रतिशत एवं गंभीर मामले 21 प्रतिशत से वह 29 प्रतिशत तक हो गए। इस तरह का बढ़ता ग्राफ न तो लोकतंत्र और न ही संसद के लिए अच्छा संकेत माना जा सकता है।

हाल ही में पुनः सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक पार्टियों का निर्देश दिया है कि राजनीतिक दल अनिवार्य रूप से पार्टी की वेबसाइट पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का ब्यौरा अपनी-अपनी वेबसाईट पर अपलोड करे और पार्टी यह भी बताए कि उम्मीदवार के खिलाफ किस तरह का आपराधिक मामला लंबित है। किस कोर्ट में लम्बित है, क्या केस नम्बर है, अदालत ने आरोप तय किये है या नहीं? चयन का आधार भी बताए? इस बावत् राजनीतिक पार्टियों के तर्क भी कितने अजीबो-गरीब है कि आरोप मात्र से कोई आरोपी नहीं हो जाता? यहां यक्ष प्रश्न उठता है फिर क्यों आमजनों को विचाराधीन कैदी के नाम पर क्यों वर्षों तक जेल में रखा जाता है, इन्हें भी नेताओं की तरह क्यों नहीं खुला छोड़ दिया जाता? ताकि जेलों में भी कैदियों का दबाव कम हो न कि जेल क्षमता से अधिक ठुंसे हुए हो?

निःसंदेह शासन का खर्च न केवल खर्च कम होगा बल्कि संसाधनों की भी बचत होगी। जब माननीयो को सरकारी खजाने से वेतन भत्ते, पेंशन मिलती है तो फिर इनका पुलिस वेरीफिकेशन क्यों नहीं? शासन के चलाने में इनकी भागीदारी कैसे? जबकि सरकारी सेवक को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है उसे भी सरकारी खजाने से वेतन भत्ते पेंशन मिलती है। दोनों सेवक में भेद कैसा? सेवक सिर्फ सेवक होता है और इस लोकतंत्र में मालिक केवल जनता ही होती है। क्या आप किसी दागी सेवक को अपने घर पर काम पर रखते है? नहीं तो फिर सरकार चलाने में इन दागियों की भागीदारी कैसे हो सकती है? कानून तो सभी के लिए एक ही होता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सरकार का सेवक है या जनता का सेवक है। दागी सिर्फ दागी होता है।

लेखिका शशि सूचना मंत्र की संपादक हैं.

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