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7.3.20

दिल्ली को दंगे की आग में झुलसाया किसने..?


जयराम शुक्ल

सीएए : अब आगे क्या! यह स्वाभाविक ही है कि जब शरीर पर चोट का बड़ा घाव हो जाता है तब फोड़े-फुंसी,सर्दी-जुखाम की तकलीफें दब जाती हैं। दंगे ने सीएए के फिलहाल दबा दिया है।

बुधवार को राहुल गांधी उत्तर-पूर्व दिल्ली की राख फूल उठा आए हैं। केजरीवाल की सरकार बर्बाद हुए परिवारों का लेखा लगा रही है। भाजपाई फरार दंगाखोरों की सुराग लगाने में लगे हैं। इधर दंगों पर वक्तव्य और गृहमंत्री अमित शाह के इस्तीफे की माँग को लेकर संसद ठप्प है।
नागरिक संशोधन कानून को लेकर शाहीनबाग, जामिया-मिल्लिया-जेएनयू और अन्य जगहों में क्या चल रहा है..? महाबली करोना के आगे चैनलों को यह दिखाने की फिलहाल फुर्सत नहीं है।

फिर भी जो सवाल दिमाग को खदबदाते हैं वे हैं कि दिल्ली को दंगे की आग में झुलसाया किसने..? नागरिक संशोधन कानून..का हश्र क्या होगा?  क्या यह कानून वाकय संविधान विरोधी है और मुसलमानों का हक छीनने वाला है..? क्या इससे डरकर केंद्र सरकार एनपीआर, एन आरसी की ओर कदम नहीं बढ़ाएगी? क्या जनसंख्या नियंत्रण कानून आएगा.? क्या भाजपा चुनावी घोषणापत्र के संकल्प के मुताबिक समान नागरिक संहिता बना पाएगी.? ये कुछ सवाल हैं जो आने वाले समय में देश-समाज को उद्वेलित करते रहेंगे।

सौ टके का सवाल यह कि दिल्ली को सुलगाया किसने..? इसका सही जवाब तभी मिल पाएगा जब इसके संदिग्धों और सूत्रों से पुलिस सबूतों के साथ कुछ उगलवाएगी..। अभी इसके पीछे दो थ्योरी चल रही है..। पहली कपिल मिश्रा जैसे न्यूजमेकर नेता की धमकी के परिणाम स्वरूप यह दंगे भड़के..। कपिल को टीवीवालों ने यह कहते हुए दिखाया कि यहां की सड़कें और चौराहों को खाली नहीं किया तो ट्रंप के जाने के बाद हम पुलिस की भी नहीं सुनेंगे..। क्या इसी की  प्रतिक्रिया स्वरूप आग लगनी शुरू हुई? क्या भाजपा का अदने से अदना कार्यकर्ता यह चाहेगा कि जब देश में ट्रंप जैसे मेहमान हो ऐसे समय किसी भी घटना से देश की प्रतिष्ठा वैश्विक क्षितिज में धूमिल हो? तो दिल्ली को सुलगाया किसने..?

साफ जवाब है कि उन लोगों ने जो महीनों से एसिड, पेट्रोल बम, ट्रकों से ढो-ढोकर पत्थर अपनी छतों में जमा करके रखा था। जिन्होंने  पेट्रोलबम फेंकने के लिए रिक्शों और छतों में गुलेलें बना कर रखीं थी। जाहिर है इतना सब कपिल मिश्रा की धमकी के बारहघंटों में नहीं जमा किया गया होगा।

 जिनने यह किया वे आग लगाने के अपने मंसूबे दिसंबर के बाद से ही पाले हुए थे जब उन्हें सियासददानों ने 'इस बार करो या मरो का संकल्प दिलाया,  -जेएनयू, जामिया को सुलगाया और तीन तलाक के नरक से निकाली गई  जनानाओं को झाँसा देकर शाहीनबाग में बैठाया।

दिल्ली को सुलगाने वाले देश को सुलगाने की मंशा पाले हुए हैं। ये वो लोग हैं जो मुसलमानों को चारा बनाकर उनके भाई बने हुए हैं। ये वो लोग हैं जो झूँठ-पर-झूँठ बोलकर मुसलमानों की दिमाग में यह बैठा दिया कि मोदी के नेतृत्व वाली हिंदू सरकार आप लोगों को देश से बाहर कर देगी। ये वो लोग हैं जो मुसलमानों को अभी नहीं तो कभी नहीं का संकल्प दिलाते घूम रहे हैं।

ये वो लोग हैं जो आजादी के बाद से ही मुसलमानों को डराकर रखा। ये वो लोग हैं जो सत्ता के बाहर वैसे ही तड़पने लगते हैं जैसे पानी के बिना मछली.। ये तड़प रहे हैं, इनकी तड़पन में उन लोगों का भी योगदान है जो सत्ता के साकेत में अबतक सिर्फ़ बुद्धिविलास के बलपर दारूमुर्गाकाकटेल का लुफ्त उठाते आए हैं। दुर्भाग्य यह कि आज भी ऐसा तबका है जो अपनी दिमाग का इस्तेमाल किए बगैर भेंड़चाल में शामिल हो जाता है।

अब बात करते हैं नागरिक संशोधन कानून का जिसे लेकर वितंडावाद खड़ा किया गया। वितंड़ावाद खड़ा करने वाले अबतक अपने दुष्प्रचार में सफल रहे। उनका काम इतना सुनियोजित और असरकारक है कि जहाँ  करोड़ों-अरबों रुपए प्रचार में खर्चने के बाद भी सरकार की समाज कल्याणकारी योजनाएं समझ में नहीं आतीं वहीं दुधमुँहे बच्चों की जुबान से भी एनसीएए, एनआरसी, एनपीआर आप सुन सकते हैं। इतना जबरदस्त ब्रेनवाश किया गया कि सही बात न कोई सुनने को तैयार है न मानने को।

नागरिकता कानून के संशोधन की पृष्ठभूमि आजादी और देश विभाजन के साथ ही बननी शुरू हुई। गाँधीजी ने पहली चिंता व्यक्त की। भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के साथ अच्छा सलूक न हुआ तो क्या होगा..? उनकी इस चिंता में नेहरू, सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारम्मैया और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष जेबी कृपलानी भी थे।

8 अप्रैल 1950 को नेहरू-लियाकत समझौते पर दस्तखत हुए। समझौता दोनों देशों के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और धार्मिक संरक्षण को लेकर था। यह समझौता दूसरे दिन से ही टूटने लगा। 1955 में नया नागरिकता कानून अस्तित्व में आया लेकिन उसकी बुनियाद पर नेहरू-लियाकत समझौते की आश्वस्ति थी।

अगस्त 1966 में भारतीय जनसंघ के सदस्य निरंजन वर्मा ने लोकसभा में प्रश्न पूछा कि क्या नेहरू लियाकत समझौते पर ईमानदारी से अमल हुआ। जवाब में तत्कालीन विदेशमंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा कि पाकिस्तान समझौते के प्रति ईमानदार नहीं रहा वहां धर्म के आधार पर प्रताड़ना दी जा रही है..। गैर मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है।

 सन् 1971 में इंदिरा जी ने पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान(बाद में बांग्लादेश) के सीमावर्ती क्षेत्रों में दौरा किया और इस बात पर चिंता व्यक्त की कि पड़ोसी मुल्क में अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार किया जा रहा है। यानी कि सन् 55 से लेकर लगातार पड़ोस में अल्पसंख्यकों के अत्याचार को लेकर हर प्रभावी मंचों से बातें कहीं जाती रहीं।

 2003 में संसद में डा.मनमोहन सिंह ने अटलबिहारी वाजपेयी सरकार से अपील की कि पड़ोसी देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने की जरूरत है।  इसके बाद जब डा. मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो इस मामले में पार्लियामेंट की एक स्टैंडिंग कमेटी बनाई जिसमें कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम व अन्य लोग थे।

 इस कमेटी ने कुछ संसुस्तियां दीं वही नागरिकता संशोधन कानून 2019 का आधार बनी। अब इस कानून में क्या है..फिर दोहराते हैं.। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में जो हिंदू, सिख,,ईसाई, पारसी, बौद्ध अल्पसंख्यक हैं यदि वे 31 दिसम्बर 2014 के पूर्व से अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं तो आस कानून के तहत उन्हें नागरिकता मिल जाएगी।

सरकार विरोधी दलों को आपत्ति इस बात पर है कि इन अल्पसंख्यकों में मुसलमानों को क्यों शामिल नहीं किया गया..? सीधा सा जवाब है कि जब ये उल्लिखित मुल्कों में अल्पसंख्यक हैं ही नहीं तो क्यों शामिल किया जाए जबकि गांधी की मंशानुरूप यह कानून अल्पसंख्यकों के हित संरक्षण के लिए है।

 यह जबरदस्ती का मुद्दा है जिसे विरोधी पक्ष ने हवा में लहराकर मुसलमानों को बरगलाया और उनमें अन्य देशवासियों के प्रति नफरत पैदा करने की गुंजाइश दी। मुसलमानों को यह नहीं बताया कि आज भी यदि कोई पाकिस्तानी या बांग्लादेशी मुसलमान भारत की नागरिकता चाहता है तो वह भी उसी तरह भारतीय नागरिकता का हकदार रहेगा जैसा कि पाकिस्तान मूल के अदनान सामी और बांग्लादेश मूल की तस्लीमा नसरीन।

हर मोर्चे पर मात खाए विरोधी पक्ष के हाथ में मुसलमान ही अस्त्र के तौरपर दिख रहे हैं इसलिए उनकी बला से देशभले ही चूल्हे भाड़ में जाए लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार को चैन से काम नहीं करने देंगे।

बहरहाल नागरिक संशोधन कानून  2019 यथार्थ के धरातल पर उतर चुका है। अर्जियां आ रही हैं और विधिसम्मत तरीके से पड़ोसी मुल्कों के अवैध प्रवासी यहां के विधिवत नागरिक बनाए जा रहे हैं।

जिन प्रांतों में गैर भाजपा दलों की सरकारें हैं वे यह प्रचारित कर रहे हैं कि नागरिक संशोधन कानून 2019 को हम लागू नहीं करेंगे। ऐसी सरकारें यह भी प्रचारित कर रही है कि विधानसभा में कानून न मानने के प्रस्ताव पारित किये गए हैं। इसकी विधिक स्थिति यह है कि सदन में ऐसे सरकारी गैर सरकारी संकल्प पारित किए जाते रहते हैं लेकिन ये कानून नहीं बनते।

 जो कह रहे हैं कि हम इस कानून को नहीं मानते वे देश से झूठ बोलते हैं क्योकि इस कानून को मानना उनकी बाध्यता है ऐसा कांग्रेस पार्टी के कानूनविद् कपिल सिब्बल भी कहते हैं और अभिषेक सिंघवी भी। अन्य विरोधी दलों के नेता जो वृत्ति से कानूनविद हैं उनकी जुबान से भी नहीं सुना होगा कि राज्य सरकारें चाहें तो इस कानून को अपने यहां अप्रभावी कर सकती हैं।

 वोट के लिए प्रांत सरकारें और उनके मुखिया सफेद झूठ बोल रहे हैं। एक मुद्दा और है जो मानवाधिकारवादी और कथित बौद्धिक उठा रहे हैं। शाहीनबाग में बैठे लोगों की जुबान से भी कुछ यही भाषा निकल रही है कि सरकार ने संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार की अवहेलना की है।

संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक नागरिकों के समता के अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि विधि के सम्मुख सभी समान हैं। अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि जाति-धर्म-नश्ल-संप्रदाय के नाम पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसी की दुहाई दी जा रही है। जबकि मालूम होना चाहिए कि नागरिकता भारत के नागरिकों से न ली जा रही, न दी जा रही। यह कानून उनके संदर्भ में है जो अबतक देश के नागरिक हैं ही नहीं। जो इस देश का नागरिक अभी है ही नहीं उसके साथ ये अनुच्छेद 14-15 के प्रभावी होने का सवाल ही नहीं उठता।

दूसरे देश के नागरिकों से धार्मिक आधार पर भेदभाव से अपने संविधान का क्या लेना देना। यदि इसमें इस तरह की कोई विरोधाभासी बात है भी तो उसकी स्पष्ट व्याख्या के लिए सर्वोच्च न्यायालय है ही। लेकिन जिन लोगों को हमारे न्यायालयों पर ही विश्वास नहीं, हमारी संसद व अन्य लोकतांत्रिक संस्थान फर्जी हैं ऐसे लोगों को भारत में रहने का क्षणभर भी अधिकार नहीं, ऐसे लोगों को चिन्हित करके देश से बाहर कर देना ही उपयुक्त होगा।

दरअसल असली डर एनपीआर और एनसीआर को लेकर है। ये दोनों रजिस्टर नए नहीं हैं, अँग्रेज खोलकर गए हैं इन्हें। कोई भी सरकार रहे इन्हें एक निर्धारित समय में अपडेट करना ही होगा। यह कितनी विचित्र और मूर्खता पूर्ण बात है कि हम  देश के नागरिकों का लेखा जोखा भी न रखें।

दुनिया में कोई ऐसा देश हो तो बताइए कि कौन है जो धरमशाले की भाँति खुला है। अमेरिका भी घुसपैठियों से परेशान है और यूरोप के दूसरे देश भी। अमेरिका मैक्सिको की सीमा पर बिजली की बाड़ लगा रहा है। समुद्री रास्तों से नौकाओं पर आने वाले घुसपैठियों को कंटेनरों में भरकर उन्हें उनके देश भेजा जा रहा है। और आप कहते हो कि हम भारत को धरमशाला बना दें। एक-एक नागरिक का हिसाब होना चाहिए।

 सीएए से ये लोग इसीलिए घबड़ाए हैं कि आगे एनपीआर, एनआरसी आने के बाद हकीकत सामने आ जाएगी कि किस तरह से असम, बंगाल, केरल व अन्य सीमावर्ती प्रांतों ये घुसपैठिए भारतीय नागरिकों के हक और संसाधनों को टिड्डी की तरह चट कर रहे हैं।

यही घुसपैठिए कुछ राजनीतिक दलों की ताकत भी हैं, उन्हीं के दम पर ये राजनीतिक दल सत्ता का भोग करते आए हैं। इन्हें डर सता रहा है कि एनपीए, एनआरसी इनकी राजनीतिक ताकत की पोल खोल देगा।

यह जनगणना का वर्ष भी है।प्रारंभिक आँकलन भयावह संकेत दे रहे हैं कि देश में जनसंख्यकीय भूगोल को किसकिस तरह बिगाड़ने की साजिशें रची गई हैं। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण कानून की चर्चा भी चल पड़ी है। यह कानून अत्यंत जरूरी है..नहीं तो देश की पहचान और इसका सांस्कृतिक अस्तित्व मिट जाएगा। इसके लिए समान नागरिकता कानून भी लाना होगा।

नरेन्द्र मोदी सरकार को बिनि रुके, बिना झुके निर्भयता के साथ एनसीए के बाद, एनपीआर, एनआरसी, जनसंख्या नियंत्रण कानून, समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ना होगा, आखिर देश की जनता ने इन्हीं सबके लिए ही तो जनादेश देकर दिल्ली के शीर्ष आसन पर बैठाया है।

संपर्कः8225812813

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