Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

12.3.20

सिंधिया परिवार ने हर हुकूमत से बनाकर रखा है जबर्दस्त तालमेल


सी.एस. राजपूत

नई दिल्ली। कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने तथा भाजपा के राज्यसभा उम्मीदवार होने पर उनके परिवार पर फिर से उंगली उठने लगी है। वैसे तो देश में ऐसे कई नेता हैं जिनके परिवार पर अंग्रेजों का साथ देने का आरोप लगता रहा है पर सिंधिया परिवार इस मामल में लोगों की जुबान पर रहा है। अक्सर ङ्क्षसंधिया परिवार को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से गद्दारी करने का आरोप लगाया जाता रहा है। अंग्रेजों के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में पटौती, रामपुर के नवाब के साथ ही संधिया रियासत का भी अंग्रेजों का साथ देने में नाम आता रहा है। राजतंत्र के अलावा अंग्रेजी हुकुमत और देश के आजाद होने के बाद देश में स्थापित होने वाली पार्टियों में भी इस परिवार का दबदबा रहा। जहां कांग्रेस में माधव राव सिंधिया के साथ उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया  अपनी अलग पहचान बनाकर रखी वहीं भाजपा में उनकी मां विजया राजे ङ्क्षसधिया व बहन वसुंधारा राजे सिंधिया का दबदबा रहा।

दरअसल इस मामले में कई सवाल हैं। क्या 1857 की लड़ाई में ङ्क्षसंधिया रियासत ने किसी पक्ष का साथ दिया या तटस्थ बने रहे? या फिर अंग्रेजों के दबाव में आ गये। इन सब सवालों का जवाब पाने के लिए सिंधिया परिवार के आज़ादी पूर्व इतिहास पर एक नज़र डालना ज़रूरी हो जाता है। बात उन दिनों की है जब अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों की सत्ता भारत में फैलने लगी थी उस समय विरोध करने के लिए सबसे सक्षम मराठों की मानी जाती थी। यह शिवाजी की तैयार की गई सेना थी कि उनकी संगठित मराठा शक्ति उनके निधन के बाद भी पूरे भारत में अलग पहचान बनाए हुए थी। मराठाों की तूती पूरे देश में बोलते थी। यही वजह थी कि मराठा सरदार बंगाल से लेकर गुजरात तक कर वसूलते थे।

यह मराठों का रुतबा ही था कि एक मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने तो दिल्ली को लूट लिया था और मुगल सम्राट को पूरी तरह से अपने दबाव में ले लिया था पर यह वह दौर था जब मराठों में दरार पड़ चुकी थी। वास्तविक सत्ता छत्रपति राजा के पास नहीं, बल्कि मंत्री पेशवाओं के हाथ में आ चुकी थी़। भोंसले, गायकवाड़, होल्कर और सिंधिया परिवार ने अपनी अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। इन सबमें सतारा के राणोजी शिंदे द्वार स्थापित सिंधिया परिवार की सत्ता सबसे कुशल साबित हुई। जॉन होप ने अपनी किताब 'फ़ेमिली ऑफ़ इंडियाÓ में इसका पूरा ब्योरा दिया है। मराठों की शक्ति को 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के तीसरे युद्ध में ध्वस्त कर दिया था, तबसे टूटते बिखरते मराठे तीन बार ईस्ट इंडिया कंपनी से टकरा चुके थे।

लॉर्ड क्लाईव द्वारा 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद स्थापित ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को वॉरेन हेस्टिंग, कार्नवालिस और लॉर्ड वेलस्ली ने लगातार आगे बढ़ाया था। वेलस्ली की सब्सिडियरी अलायंस (सहायक संधि) की नीति ने भारतीय रियासतों पर परोक्ष नियंत्रण की शुरुआत कर दी थी और मराठा रियासतें भी उसकी चपेट में आती जा रही थीं। 1818 में तीसरे मराठा युद्ध में ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने मराठा शक्ति को चकनाचूर कर दिया। सिंधिया परिवार की बागडोर दौलत राव सिंधिया के हाथ में आई। मराठा सरदारों में सिंधिया ने सबसे अधिक दुनियादारी दिखाई और उज्जैन से लश्कर होते हुए ग्वालियर अपनी राजधानी बनाई।

सिंधिया राजघराने ने एक ओर दक्षिण के सुल्तानों से और दूसरी ओर अंग्रेजों से अच्छे कूटनीतिक रिश्ता क़ायम कर लिया था। इस परिवार को दक्षिण के शासकों और ब्रिटिश सरकार से मिले ख़िताबों पर नज़र डाली जाए तो ये साफ हो जाएगा कि इस परिवार में कितना कूटनीतिक कौशल रहा है। हालांकि इस राजघराने ने 1857 लड़ाई में साफ तौर पर किसी भी पक्ष का साथ नहीं दिया, लेकिन उस वक़्त भी अंग्रेज़ों के साथ उसके अच्छे रिश्ते थे। गत ढाई तीन सौ सालों में इस परिवार के लगातार सत्ता में बने रहने के पीछे मुख्यत: दो कारण रहे हैं। एक, इस परिवार की दूरदर्शी व्यावहारिक राजनीति और दूसरा, परिवार में कुछ शासकों द्वारा अपनाई जाने वाली आधुनिकीकरण की नीति, जैसे महिलाओं का बराबरी का योगदान। दौलतराव सिंधिया की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी बैजाबाई सिंधिया ने शासन किया। उन्होंने जनकोजी राव को दत्तक पुत्र बनाया और उनकी मृत्यु के बाद ताराबाई ने सत्ता संभाली।

यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी चलता रहा। 1947 में अग्रेज़ी हुकूमत ने देसी रियासतों के सामने एक चयन प्रस्ताव रखा था कि वे चाहें तो अलग रहें या भारत या पाकिस्तान में विलय कर लें। लेकिन सिंधिया परिवार ने भारत में विलय का निर्णय लिया था और जीवाजीराव मध्य भारत में राजप्रमुख बना दिए गए थे। 1962 में जिवाजी राव की पत्नी विजया राव सिंधिया ने चुनावी राजनीति में प्रवेश लिया और तबसे उनके परिवार भारत की दोनों प्रमुख पार्टियों में अपनी दमदार स्थिति बनाए रखी।

जयाजीराव पर लगता है झांसी की रानी के खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप

नई दिल्ली। ज्योतिरादित्य सिंधिया के दादा महाराज जयाजीराव सिंधिया पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप लगता है।

जयाजीराव का अग्रेजों से लगाव देखकर ग्वालियर की कुछ सेना अपने राजा से नफरत करने लगी थी। इसलिए जब रानी लक्ष्मी बाई कालपी से ग्वालियर आई तब राजा से नाराज  बागी सेना रानी लक्ष्मी बाई से जा मिली। रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर के  सेनाओं  और जनता के  समर्थन से  ग्वालियर के  किले में अपना कब्ज़ा कर लिया़। रानी का किले पर  कब्जा होते ही जयाजीराव सिंधिया  ग्वालियर छोड़कर  भाग गए। सबको लगता था की राजा जयाजीराव सिंधिया आगरा भाग गए है, लेकिन यह बात बाद  में सामने आई, जब गदर खत्म हुआ। कई वर्षों बाद पता चला कि जयाजीराव सिंधिया आगरा नहीं,  बल्कि मुरैना के समीप स्थित आसन नदी के पास बने माता  हरिसिद्धि के मंदिर में छुपे हुए  थे। जयाजीराव सिंधिया के अंग्रेजो के साथ , एक कूटनीति तैयार की और  ह्यूरोज द्वारा  जयाजी राव को उसके बागी सेना के विरुद्ध  लड़ने हेतु तैयार की गई  सेना का मुख्य बना दिया गया। जब जयाजीराव अंग्रेजी सैनिको के साथ रानी से लड़ने आया, तब अपने महाराज  को सामने खड़ा देख ग्वालियर की बागी सेनाओं ने रानी को अकेला छोड़ दिया।

No comments: