हिंदुस्तान अखबार की एक छोटी यूनिट के न्यूज एडिटर आजकल चर्चा में हैं. वे दनादन धमाके कर रहे हैं. कुछ समय पहले 9 लाख की होंडा अमेज कार खरीद कर अपना लोहा मनवाया तो अब सवा लाख वाला एप्पल का आईफोन ले आए हैं.
ये महोदय इससे पहले एक जिले के ब्यूरो चीफ थे. रिटायर हो चुके एक संपादक इन्हें प्रमोट कर हिदुस्तान का dne बनाया गया. बाद में ne का चार्ज दिया गया.
हिंदुस्तान के एक रिटायर संपादक के कृपा पात्र रहे इन न्यूज एडिटर का जीवन उल्लास और शाहखर्ची से भरा हुआ है. ये अलग बात है कि खुद हिंदुस्तान अखबार इस शहर में अपने प्रिंटिंग प्रेस में नहीं बल्कि अमर उजाला अखबार के प्रेस में छप रहा है.
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छुरी की धार तेज करता हुआ एक किशोर ग्राहक का इन्तजार कर रहा है. अभी अभी काटा गया बकरा लोहे की खूंटी से टांगा जा चुका है. भुनी हुई उसकी खाल के रोओं की दुर्गन्ध में ताजे रक्त और मांस की आदिम गंधें मिली हुई हैं. यह बूचड़ का छोटा सा खोखा है जहाँ अपनी उम्र के सबसे कोमल पड़ाव पर वह सहायक की नौकरी करता है. उसके माँ-बाप मर-खप चुके हैं. समाज उसके माथे पर शराबी-जुआरियों के खानदान की संतति होने की मोहर ठोक कर खुश रहता है. ग्राहक का इन्तजार करता बालक सान पर छुरी की धार तेज करने लगता है. धार की चमकदार कौंध पर उसकी निगाह ठहरते-ठहरते सामने उठ जाती है – हरे-नीले-सलेटी पहाड़ों की अनगिन परछाइयों के आगे क्षितिज पर चमकीले हिमालय की धवल चोटियां पसरी हुई हैं.
यह गोश्त काटने वाले चाकू की धार और हिमालय की झलमल चोटियों का विकट स्मृति-संयोजन रहा होगा जब किसी निर्णायक पल में उसने लेखक बनने का फैसला किया.
यह पहली छवि है जो उन्हें याद करते हुए मन में उभरती है. और मैं उन्हें बार-बार याद करता हूं.
कुछ सालों बाद यह पहाड़ी किशोर बड़ा होकर भनमंजुवा बन बंबई के एक ढाबे में प्याले-तश्तरियां धोने का काम कर रहा है. और वह लेखक बन चुका है – हिन्दी का स्ट्रगलर लेखक. उसकी कहानियां धर्मयुग जैसी पत्रिका में छप चुकी हैं लेकिन निर्धनता के पाश से निकल पाना मुश्किल है. वह रातों को आवारा टहलता है ताकि पुलिस वाले उसे अपराधी समझ कर थाने में बंद कर दें. वहां कम से कम खाना तो दो बखत मिलेगा. सर के ऊपर छत अलग से होगी.
अल्मोड़ा से दिल्ली, बम्बई, इलाहाबाद और अंततः हल्द्वानी जैसी जगहों पर फैले हुए उनके जीवन के सुने-अनसुने किस्सों-अनुभवों के धागे हैं जिन्हें पहचानने-समझने के लिए उनके लिखे का एक-एक शब्द पढ़ना होगा.
शैलेश मटियानी के शब्दों के ब्रह्माण्ड के आरपार गुजरने के बाद केवल हैरत की जा सकती है कि एक आदमी एक जीवन में कितनी सारी ज़बानें साध और तराश सकता है और कितने तरह के, कितनी बुनावटों वाले और देह-मन की कैसी-कैसी सतहों में महफूज कितने पात्रों को अपनी आत्मा के भीतर आवाजाही करने दे सकता है.
चम्पावत के वीर बफौलों, राजा कालीचंद और उसकी डोटियाली रूपाली रानी की दास्तान सुनाता हुआ वह देवताओं का आह्वान करने वाला एक ठेठ पहाड़ी जगरिया है. वह किसी पहाड़ी नगर में रहने वाले एक कामासक्त आभिजात्य बूढ़े के मन की गांठें खोलने का माद्दा रखता है तो दिन भर चौराहे पर भीख मांगने वाली कोढ़ से हार चुकी किसी दरिद्रा के दिल में मोहब्बत की मुलायम लपट उठा सकने का भी. उसके यहाँ गरीबों के किस्से हैं जीवन ने जिन्हें चोरी-चकारी और अपराध में लिपझा दिया है, बंगाली शैली की लकदक साड़ियों में सजी औरतों की बेवफाइयां हैं, एक इन्तजार से दूसरे इन्तजार में जीवन काट देने वाली पीढ़ियां हैं, मुटा गयी वेश्याओं की तकलीफें हैं और जीवन के सबसे कोमल हिस्से से चुराए गए सबसे बेशकीमती पलों की डायरियां हैं.
सधे हुए शिल्प में ढाले गए उनके अनगिनत अकल्पनीय और बेढब कैरेक्टर्स अपनी पूरी की पूरी दुनिया और उनके रंगों के साथ आपके भीतर धंस जाते हैं.
शैलेश मटियानी की दो जिंदगानियां थीं – एक था दुनिया की हर कथा लिखने को बेताब एक किस्सागो और दूसरा गरीबी और उपेक्षा से लगातार लड़ते जाने को अभिशप्त एक गृहस्थ जिसके जीवन में अंतहीन मुफलिसी का सिलसिला था जिसे उसके नौजवान बेटे की असमय मौत ने उस दिन तक ढंग से सोने न दिया जब तक खुद उसके शरीर की आख़िरी सांस ख़त्म न हो गयी.
जीवन ने मटियानी जी के साथ बहुत क्रूर बर्ताव किया. वे उसकी टक्कर में खड़े रहे और बार-बार उसके कद को बौना साबित कर के दिखाते रहे. लेखक-वेखक तो हर जगह भतेरे होते हैं. शैलेश मटियानी एक ही था.
आज उनका जन्मदिन है.
#रीपोस्ट
(मटियानी जी का दुर्लभ फोटो देवेन मेवाड़ी जी के संग्रह से)
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