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9.6.08

नीलोफ़र की एक और खनखनाती हुई टिप्पणी सादर कर रहा हूं

प्रिय आत्मना नीलोफ़र (जी, लिख सकता हूं या इसकी भी सिलाई उधेड़ देंगी, चलिये अगर उधेड़ना है तो मजा आएगा; शुरू हो जाइए। ये आपके वाले जी का क्या अर्थ सामान्यतः प्रयुक्त आदरसूचक ही है या कुछ अलग????)
सप्रेम प्रणाम
आपने जो टिप्पणी लिखी थी उसे फ़िर मैं एक पोस्ट के रूप में प्रकाशित कर रहा हूं आशा है कि आपको ये नापसंद न होगा जैसा कि मेरा बहन संबोधित करना लगा। काश मैं यदि यूरोप या एशियाइतर किसी स्थान में पैदा हुआ होता तो कदाचित आप मुझे कुंठित न मान पातीं, चेतन - अचेतन -अवचेतन -अर्धचेतन - छोटा चेतन(ये शायद चेतना से संबंधित नहीं है लेकिन चेतन है इसलिये लिखने में मजा आ रहा है) में गाने नहीं इंकलाब बजता है, बजता है लेकिन वंदे मातरम......, अच्छा लगा ये पढ़ कर कि आपने इतनी बेबाकी से लिखा कि बच्चे बन कर पुरुष दिखाना-दिखाना खेलते हैं लेकिन मेरा चश्मा थोड़ा धुंधला था शायद कि मैंने ठीक से या तो यौन को देखा-दिखाया नहीं या फिर कुंठा इतनी गहरी है कि बड़ा होने पर स्त्रियों को छोड़ कर लैंगिक विकलांगों(चलताऊ भाषा में हिजड़ों) के बारे में सोचने लगा, मनीषा नारायण नामक मेरी बहन के बारे में जानने में आशा है कि आपको परेशानी न होगी। आपने लिखा है कि मैं चाहती हूं या कहूं कि डिजर्व करती हूं कि मुझे एक स्वतंत्र शरीर, रूह और शख्सियत के तौर पर देखा और एड्रेस किया जाए। मेरी छातियों, नितंबो, कंमनीय त्वचा, लिपिस्टक लगे होंठों और औरत की आत्मा समेत(मुझे एक चिकित्सक होने के नाते से और भी तमाम जानकारियां हैं अंगों-उपांगो की जो स्त्री को पुरुष से सर्वथा भिन्न रखतीं हैं), तो यकीन मनिये कि मैं (सिर्फ़ अपनी बात कह रहा हूं) आपको जैसा आप चाहेंगी वैसा ही कहूंगा/पुकारूंगा मुझे कोई आपत्ति नहीं है,किन्तु उसके लिये आपको स्वयं ही अपनी छातियों,नितंबो,कमनीय त्वचा और आत्मा आदि के बारे में अपना वैयक्तिक वर्णन करना होगा ताकि जाना समझा जा सके। आपने संबोधन को संबंध स्वीकारा और इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया दी इस बात की मुझे प्रसन्नता है कि आपने उस संबोधन को इतने गहरे तरीके से ग्रहण करके उगल दिया, दिल की गहराई से धन्यवाद प्रेषित करता हूं यदि स्वीकारने में दिक्कत न हो तो अवश्य स्वीकारें। मैं एक सामयिक संत से जुड़ा रहा उनके कम्यून में तो हर दीक्षित संन्यासी को स्वामी और स्त्री को मां कहते हैं कितने दुष्ट लोग हैं कि बहन कहने का मार्ग ही बंद कर देते हैं अगर खुला रहे तो बड़े होकर भी मन करे तो दिखाना-दिखाना खेल सकते हैं ये कुंठित भारतीय किस्म के लोग.... ये रक्षाबंधन नामक पर्व भारत में कुछ खास धर्मों को मानने वाले ही मनाते हैं तमामोतमाम भारतीय संप्रदाय इस पाखंड से पूरी तरह से मुक्त हैं तो उन्हें तो बरी कर दीजिये आरोप से..... विश्वास करिये नीलोफ़र आप से संवाद होकर ऐसा लग रहा है कि मेरी कोई संन्यासिन मैत्रिण हो ...... यदि समस्या न हो तो भड़ास पर इसी तरह से अपनी उपस्थिति दर्शाती रहिये आपका हार्दिक स्वागत है......... आपकी पोस्ट में कुछ वर्तनियों की अशुद्धियों के अलावा कुछ नहीं बदला है........
nilofar said...
प्रिय डाक्टर.बहन कहलाना मुझे खासा नापसंद है, वह भी किसी एशियाई खासतौर से भारतीय के मुंह से।हर भारतीय मर्द के भीतर रक्षाबंधन का भव्य चित्रण करने वाली फिल्मों के गाने अवचेतन में बजते रहते हैं। यह एक कांप्लेक्स या कहिए सहूलियत बजरिए कांप्लेक्स रास्ते से है। किसी भारतीय की बहन बनना रिश्ते की पवित्रता के पाखंड के नीचे उसके मर्द अधिपत्य को स्वीकार करना है।....पुरूष बहन बनाकर तुरंत बचपन में प्रवेश करता है और वहां जाकर- तुम अपनी दिखाओ मैं अपना दिखाता हूं- खेलने लगता है। यह बड़ा मासूम सा लेकिन इश्तियालंगेज खेल है जो भविष्य के जीवन पथ का संकेत देता है।कुंठित प्रतिबंधों के बीच बहन कहने का सिलसिला तो आजादी के आंदोलन यानि शराब की दुकानों के आगे गांधी प्रेरित पिकेटिंग वगैरा के दौर में शुरू हुआ वरना उससे पहले तो मां कहकर पोटते थे। मात्रिवत परदारेषु- दारा यानि वूमन- सूत्रवाक्य था। दिल्ली सहारा में एक जी विमल हैं, उनका जानने वाला एक जी शैलेंद्र है, जो तब लक्ष्मी नगर में रहता था और किसी टीवी चैनल में काम करता था, उसकी बेटी का नाम आस्था है, घर का माइनर नौकर जो बिहार से स्मगल किया गया था, बच्ची को आस्था मइया कहता था। जी यशवंत से कन्फर्म करा सकते हैं।जब किसी पुरूष को भी भाई कहते हैं तो उसका वही मतलब नहीं होता। यह एक जस्ट टू स्ट्राइक द कनवरसेशन की विधि है-वरना हम उससे हां भ्राता ही नहीं उससे-अबे घुस यह क्या भाई-वाई लगा रखा है, दाऊद का आदमी समझता है क्या? भी सुनने को तैयार रहते हैं।मैं चाहती हूं या कहूं कि डिजर्व करती हूं कि मुझे एक स्वतंत्र शरीर, रूह और शख्सियत के तौर पर देखा और एड्रेस किया जाए। मेरी छातियों, नितंबो, कंमनीय त्वचा, लिपिस्टक लगे होंठों और औरत की आत्मा समेत। मिसाल के तौर पर जैसे आप किसी गबरू जवान या तगड़े मर्द का जिक्र करते हैं तो उसके सीने, ऊंचाई, मूंछो, रौबदार आवाज, चलने के अंदाज, बाजुऔं की मछलियों वगैरा का व्यौरा देते हैं (जैसा जी यशवंत ने किन्हीं प्रमोद सिंह का दिया है ) तो यह मूलतः भय पैदा करता है। लेकिन जब कदली सी जंघाओं वाली, स्तनों के भार से आगे और नितंब के भार से पीछे झुकी नायिकाओं का वर्णन आता है तो यह उत्तेजना मिक्स्ड कामना, लालच, खिंचाव पैदा करता है। भय और कामना यही मुझे लगता है भाई और बहन मर्द और लेडी बेसिक फर्क है।मुझे अच्छा लगता है कि मैं दुनिया में भय जैसी नकारात्मक फीलिंग के बजाय इतनी सी कामना या स्रजन की लालसा पैदा करती हूं। इसलिए बहन के बजाय मेरा तआर्रूफ अलहदा पर्सनालिटी के बतौर ज्यादा माकूल होगा।
आदाब

4 comments:

Unknown said...

dr. sab ye prati-kriya sacmuch lajwab hai nilofar jee ki...ise to kal mai hi post krnevala tha...kisi vjh se rh gya...

Anonymous said...

रुपेश भाई,

अगर ये जज्बा है तो नि:संदेह पुरुष ओर महिला की विद्रुप दूरी खतम समझिये। निलोफ़र जी का स्वागत है (माफ़ करिये एक भारतीय तहजीब हमे बिना जी के सँबोधित करने की इजाजत नही दे रहा)।

बधाई दो धुरंधरों को।

जय जय भडास

Anonymous said...

hajaro khavhishe aisee,
ki har khvahish pe dam nikle |
bahut nikale mere armaan,
lekin phir hbi kam nikle ||

nikalna khulk se aatam ka,
sunte aaye hai lekin,
bade beaabroo ho kar,
tere kooche se ham nikle |||||||||.
................venus

नीलोफर said...

प्रिय डाक्टर,
नितंब- तंब, तंब, तननन अनंब, अनंब।
स्तन- तुम तनतनननना।
जांघे-एघें गें-घें
इन शब्दों का उच्चारण अजब, सेसुअस, फोनेटिक सांगितिक विस्तार में लिपटी प्रतिक्रियाएं जगाता है न। जिन्हें मुझे कहना होगा ताकि आप जान-सुन सकें। जानिए। हिंदी फिल्मों में ज्यादतर आइटम गानों में, आइटम बाला ही अपने अंग-उपांगों का ब्यौरा क्यों देती है ? ( कजरारे-२ मेरे कारे कारे, मेरा लंहगा बड़ा है मंहगा, मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने वगैरा) शायद इसलिए कि जब औरत अपने अंगों का ब्यौरा दे तो लगता है कि अपनी दूकान के आइटमों का विग्यापन कर रही है। इस तकनीक का इस्तेमाल पुरूष में फतांसी जगा पाने के लिए अनिवार्य उपलब्धता-बोध इंजेक्ट करने के लिए किया जाता है। खैर किसी को भी उसके लैंगिक पहचानों से अलग कर के देखना असंभव है। यहां अमेरिका में भी हिलेरी िक्लंटन जो प्रेशिडेंसियल रेस में पिछड़ती लग रही है को कार्टूनों में योनि में ही परमाणु बम छिपाया दिखाया जा रहा है, और कोई जगह माकूल नहीं मिली। नारीवाद के मदीना अमेरिका में हिलेरी जैसी ताकतवर औरत का चित्रण भी वैसा ही किया जा रहा है जैसा हमारे यहां थोड़ी फूहड़ किंतु बेहद लोक प्रिय लोक कथाओं में भेड़ों, सूयॆ, चंद्रमा, आदमी वगैरा को अपने गुप्त कोटरों में छिपा लेने वाली चरवाहिनों या पराकामुक िस्त्रयों का किया जाता रहा है तो फिर क्या कहा जाए।
खैर मेरा मतलब सिफॆ अपनी अस्िमता और वैचारिक पहचान से है। हम नेट के आभासी अंतरिक्ष में सिफॆ विचार ही तो हैं। कहां के भाई और कहां की बहन। दुनिया के इस छोर से वहां तक बरास्ते समुद्र गए अजगर इंटरनेट केबिल के किसी एक तार के किसी हिस्से में मेरे या आपके ई-पते या पासवडॆ का अस्ित्तव एक बिंदु, एक स्फुरण से ज्यादा कुछ नहीं होगा। वहां हमारा सूक्ष्म है स्थूल नहीं।
फिर भी पता नहीं क्यों तुम्हें कर्मवती की चुटिया में बंधा हुमांयू छाप सेकुलर लाल रिबन कहने का मन हो रहा है। आशा है बुरा नहीं मानोगे। मान भी जाओ तो क्या...........।