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4.10.11

रूहें खानाबदोश क्यूँ हुआ करती हैं.....??






मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


            पता नहीं क्यूँ रूहें खानाबदोश क्यूँ हुआ करती हैं.....और ख्वाब क्यूँ आवारा....!!क्या हमारे भीतर किसी रूह का होना कहीं कोई ख्वाब ही तो नहीं....या कि हम कहीं ख़्वाबों को ही तो रूह नहीं समझ बैठे हैं....क्यूंकि सच में अगर रूह हुआ करती तो आदमी भला बेईमान भला क्यूँकर हुआ करता...!!अगर सच में आदमी के भीतर रूह हुई होती तो उसका अक्श भी तो उसके भीतर दिखाई दिया होता....हज़ारों हज़ार बरसों में कुछ सैंकड़े आदमों में ही इसकी खुशबू तो नहीं पायी जाती ना....अब जैसे फूल के भीतर अगर खुशबू है...तो वह भले ही दिखाई नहीं देती....मगर उसकी गंध तो साफ़-साफ़ हम ले पाते हैं ना अपने भीतर...!!अब जैसे किसी भी वस्तु का जो भी स्वभाव है...उसे हम प्रकटतः देख-सुन-महसूस तो कर पातें हैं ना...यह बात ब्रहमांड के भीतर व्याप्त हरेक पिंड-अपिंड में लागू होती है....उसी तरह आदमी के भीतर अगर रूह का होना सचमुच सच है....तो कहाँ है भला उसकी खुशबू....कहाँ है उसका कोई स्वभाव....जो उसे सचमुच रूह-युक्त करार देवे....??
              बेशक ख्वाब तो आवारा ही हुआ करते हैं....और उनका आवारा होना ही बार-बार हमें किसी ना किसी तरह से जन्माता है....मारता है....हमें जीवन्तता प्रदान करता है....रूह और ख्वाब का सम्बन्ध सचमुच किसी ना अर्थ में सही है.....आदमी जो ख्वाब देखता है....दरअसल उनका कोई अस्तित्व ही नहीं हुआ करता....आदमी ख्वाब में अपनी जो दुनिया निर्मित करता है....वह दरअसल कभी बन ही नहीं पाती....आदमी ख्वाब देखता चला जाता है....और सोचता चला जाता है कि वह कल ऐसा कर लेगा....वह कल ऐसा कर लेगा...हर कल आज होकर फिर से गुजरे हुए कल में बदल जाता है....ख्वाब,ख्वाब ही रहता है....हकीकत नहीं बन पाता....मगर आदमी की आशा एकमात्र ऐसी चीज़ है....जो कि आदमी का भरोसा उसके ख्वाब से बिलकुल नहीं छूटने देती....आदमी रोज उन्हीं ख़्वाबों में जिए चला जाता है...जो प्रतिदिन टूटा करते हैं....और जिन्दगी में ना जाने कितनी बार टूटते ही चले जाते हैं....और आदमी भरोसा किये चला जाता है.....आदमी आशा किये चला जाता है....जिन्दगी एक आस है....सपनों के पूरा होने का.....और जिन्दगी एक प्यास है....जिन्दगी को जिन्दगी की तरह पी जाने का....किसी की प्यास कम बुझ पाती है...किसी की ज्यादा....और किसी को तो पानी ही नहीं मिलता....जीने के लिए....मगर वो भी जीता है....जिन्दगी ख्वाब है एक भूखे की रोटी का....!!
                    हाँ ख्वाब और रूह का  सम्बन्ध तो है ही....ख्वाब उन्हीं चीज़ों के देखे जाते हैं अक्सर....जो है ही नहीं....और आदमी में रूह का होना भी एक ख्वाब ही है....क्यूंकि वो तो आदमी में है ही नहीं.....!!

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