चहुँ ओर की हाहाकार में त्यौहारों का उल्लास दम तोड़ रहा है। मंहगाई का कुचक्र त्यौहारांे की खुशियों को सिसकियों में परिवर्तित कर रहा है। अमीर-गरीब का स्तरीय विभेदीकरण एक कॉमन (उभयनिष्ठ) सीमा पर आकर बेबस हो गया है। मंहगाई- आर्थिक रूप से विभिन्नता लिए कोई भी जीवन स्तर हो, सभी इसी शब्द से त्रस्त हैं। आखिर कैसे आनन्दित हो त्यौहारों के आगमन पर? यह विचार प्रत्येक उस व्यक्ति को कचोटता होगा जिसके लिए त्यौहार के आगमन की प्रसन्नता का आधार ‘‘पैसा’’ है। पटाखे जलाना, मिठाई खरीदना, घर सजाना, खरीददारी करना, क्या यही एक माध्यम है त्यौहार मनाने का? नहीं! यदि त्यौहार मनाने के वास्तविक स्वरूप को स्वीकार किया जाये तो निःसन्देह इस वर्ष की दिवाली आपको सर्वाधिक आत्मिक प्रसन्नता देगी। मात्र् आवश्यकता है बाहरी आडम्बर व दिखावे-छलावे की दुनिया के स्वयं को विरक्त करने की। आर्थिक प्रतिस्पर्धा को त्यागकर सादगी को अपनाते हुए दीये जलाइये उन घरों में जहाँ त्यौहार पर चूल्हे की ठंडी राख बेबस माँ के आँसूओं और भूख से तड़पते बच्चों की सिसकियों को छुपाती है। पटाखों की गूँज से तीव्र कीजिए उन बच्चों की हँसी की गूँज को जिनकी प्यासी आँखें अपनों के न होने के अहसास से सिहर उठती हैं। दीजिए सहारा उन काँपते हाथों को जिनके कटु अनुभव उनके जीवन की मिठास को कहीं लील गये हैं। अगर इस दिवाली को मनाने को इस ढ़ंग को आप अपनायेंगे तो कभी मंहगाई की मार आपकी दिवाली फीकी नहीं कर सकेगी।
25.10.11
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