शंकर जालान
‘‘जलाओ दीए पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए’’ रोशनी के पर्व दीपावली से प्रेरित हो इस कविता को रचने वाले कवि को क्या पता था कि वह जिस दीए की बात कर रहा है वह आधुनिक के युग में लगभग बाजार से गायब ही हो गया है। न दीए, न बाती और न तेल की जरूरत। फिर भी टिमटिमाते दीए जैसी रोशनी, जिसे हवाओं के झोंके का भी डर नहीं। जी हां, अब बिजली व बैटरी से रोशन होने वाले दीए से बाजार पटा पड़ा है। भले ही बिजली चालित दीए से अंधेरा दूर व घर रोशन होता हो, मगर दीए व बाती के धंधे से जुड़े लोगों का घर अंधेरे में डूबता जा रहा है। इस वर्ष देशभर में 26 अक्तूबर को दीपावली का पर्व मनाया जाएगा। इसदिन लोग अपने घरों को रंग-बिरंगी रोशनी से सजाते हैं। कुछ वर्षोें पहले तक दीपावली पर मिट््टी से बने दीए जलाने का चलन था। दीए और सबसे भरे तेल अथवा धी के बीच रूई की बत्ती की लौ देखते ही बनती थी और लोग दीपावली को रोशन करते थे, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ दीए की जगह चीन निर्मित छोटे (टूनी) बल्बों ने ले ली है। रोशनी की चकाचौंध और कम खर्च को देखते हुए लोग इन आधुनिक टूनी बल्बों व झालरों का ही उपयोग अधिकाधिक करने लगे हैं। इससे मिट््टी के दीए बनाने वाले कुम्हारों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ गई है। मिट््टी और सरसों तेल, घी की कीमत में आशातीत वृद्धि को देखते हुए दीए की मांग धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इससे इन कुम्हारों को आर्थिक नुकसान उठाने के अलावा बेरोजगारी का दंश भी झेलना पड़ रहा है। कोलकाता में हजारों की संख्या में ऐसे कुम्हार हैं मिट््टी के दीए, कलश, गमले और टब बनाकर अपना जीवन-यापन करते हैं। मिट््टी के साधारण दीए ग्राहकों को पसंद नहीं आते और डिजाइन व रंगीव दीए अब महंगे होते जा रहे हैं और इस लिए इनकी मांग भी कम होती जा रही है। संकुचित होते बाजार के चलते अब कुम्हारों की नई पीढ़ी इस पेशे में नहीं आना चाहती। कई कुम्हार अभी भी परंपरा की खातिर इस कला से जुड़े हुए हैं। हालांकि इनके बच्चों का कहना है कि केवल कला के जुड़ाव के कारण इस शिल्प से जुड़ा रहना समझदारी का काम नहीं हैं। क्योंकि इसके भरोसे परिवार का पालव संभव नहीं। हम अब नए व्यवसाय में जाने की सोच रहे हैं। जानकारों का मानना है कि मिट््टी के दीए व अन्य सामग्रियों के निर्माण में लगे असंख्य लोग अपनी जीविका चलाते थ, लेकिन वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में हस्तशिल्प की यह कला अब लुप्त होने की कगार पर हैं, जबकि कभी ये हमारी पारंपरिक कुटीर उद्योग के आधार हुआ करते थे।
ध्यान रहे कि दीपक का प्रकाश अंधकार को दूर करता है। इसीलिए कहा गया - ‘‘तमसो मा ज्योर्तिमयगम्यम’’ लेकिन अब वह बात कहां। अब तो दीपावली का अर्थ है, तो पटाखों का शोरगुल और बिजली का फिजूलखर्ची। एक ओर जहां पटाखों की धमक से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है, वहीं अत्यधिक बिजली के उपयोग से विद्युत संकट। यानि ले देकर मुसीबत हमारी ही है, तो क्यों न हम प्रण लें कि अब दीपावली का पालन पुराने व पारंपरिक तरीकों से करेंगे। यानि कि जो आनंद दीए की पवित्र लौ में है, वह विद्युत झालरों, बल्बों और पटाखों के धमाकों में कहां?
पंडित मधुसूदन शर्मा बताते हैं कि प्राचीन परंपरा के तहत दीपावली पर लोग दीपक जलाकर चारों तरफ प्रकाश करते थे। उस दौर में पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली आतिशबाजी नहीं होती थी। त्रेता युग में भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरी कर जब वापस अपनी राजधानी अयोध्या लौटे थे, तब लोगों ने उनके (श्रीराम) के स्वागत में दीए जलाकर अपने घरों को रोशन किया था।
‘‘दीपो ज्योति: परं ब्रह्मा दीपो ज्योतिजर्नादर्न:, दीपो हरतु मे पापं सांध्यदीप! नमोस्तु ते।। ’’
दीपावली के तांत्रिक पहलू के संबंध में एक पंडित ने बताया कि महिषासुर का दमन करने के लिए जब देवी दुर्गा को और शक्ति की आवश्यकता हुई तो उन्होंने श्यामा (काली) का रूप धारण किया था। अत्यधिक शक्ति के कारण क्रोध के वशीभूत होकर देवी जब असुरों के बाद संपूर्ण सृष्टि में उथल-पुथल मचानी शुरू कर दी तो भगवान शंकर ने उनको रोकने के लिए अपने को प्रस्तुत कर दिया था। देवी का क्रोध शांत होने के बाद असुरों के विनाश से खुश देवताओं ने अपने-अपने घरों में दीए जलाकर खुशियां मनाई और देवी की आराधना की थी। इसके बाद से ही मानव समाज में भी दीपावली मनाने का सिललसिला शुरू हुआ।
उन्होंने बताया कि धार्मिक मान्यता के साथ ही दीपावली मनाने का वैज्ञानिक पहलू भी है। इससे हम अपने आसपास के वातावरण को स्वच्छ करते हैं। आतिशबाजी के शोर-शराबों से दूर जब सामूहिक रूप से दीए जलाए जाते हैं तो उसके प्रकाश से निकलने वाली किरणें वातावरण में फैले रोगाणुओं व कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं।
21.10.11
दीपावली पर अब नहीं दिखती दीपक की लौ
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1 comment:
बहुत सार्थक प्रस्तुति, बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
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